Sunday, November 4, 2012

आरज़ू


चलो रात चाँद पे चढ़ जाएँ,
और ख़्वाबों की ज़मीं पे कूदें,
कुछ  वादों की धूल उठा के,
एक दूसरे पे फेंकें,
रात की काली चादर को,
जुगनुओं की रौशनी में भिगो दें,
लहरें बना के,
दरिया को जगाएं,
चलो रात चाँद पे चढ़ जाएँ,
और दरख्तों की शाखों पे अपना नाम कुरेदें,
बादलों के टुकड़े काट के,
तेरा आँचल बना दें,
मुस्कुराहटें होंठों पे सजा लें,
तेरी शोख़ियों की सरगम को,
उम्र भर गुनगुनाएँ,
चलो ना, इक रात चाँद पे चढ़ जाएँ.

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अनिरुद्ध
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