Thursday, July 16, 2015

मैं तुम्हें फ़िर मिलूँगी

मल्लिका-ऐ-नज़्म ने,
जाते जाते यूँ कह दिया,
मैं तुम्हें फ़िर मिलूँगी,
इक शायर ये सुन कर,
दरवेश बना फ़िरता है,
फ़लक़ दर फ़लक़ भटकता है,
क़ायनात के हर ज़र्रे में,
बस उसे ही ढूँढता है,
अक़्सर मेरे पास आता है,
अगले सफ़र का रसद लेने,
एक-दो घड़ी ग़र ज़्यादा बिठा लूँ उसे,
तो हड़बड़ा कर,
बिना कुछ कहे सुने भागता है,
नादाँ है - समझता ही नहीं,
पलट कर कभी,
वक़्त की राह पर बने,
क़दमों के निशां देखता ही नहीं,
कि अगर देखे तो जाने,
मल्लिका-ऐ-नज़्म,
उसकी क़लम से टपकते,
इक-इक लफ़्ज़ को चुनती है,
गीत, ग़ज़लें, नज़्में बुनती उसके ही पीछे चलती है,
ज़िन्दग़ी का ये मज़्मुआ,
जिस दिन मुक़्क़मल होगा,
उस दिन सबसे ऊँचे फ़लक़ पर,
वो उसे फिर मिलेगी.

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अनिरुद्ध

(Inspired by "Main Phir Tumhe Milungi" by Amrita Pritam)


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