Friday, May 1, 2020

क़सक

सोचता हूँ
की ग़र पैसों की तरह होती धड़कने
तो संभाल कर ज़ेबों में रखते
ज़रुरत पड़ने पर ही ख़र्च करते
थोड़ी ज़्यादा जो हो जाती
तो अलमिरा में सहेज लेते
या किसी यार को
ख़ास मौक़े पे तोहफ़े में देते
या फिऱ
किसी अजनबी की मदद में ख़र्चते 
और जो अगर कम पड़ जातीं
तो किसी दोस्त से उधार ले लेते
या फिऱ पुराना कोई सामान बेच कर
इंतज़ाम कर लेते

अफ़सोस
की पैसों की तरह नहीं हैं धड़कने
अपने हिस्से की सबके पास
कितनी हैं पता नहीं
लेकिन अक़्सर
ज़रूरतों से कम हैं



---
अनिरुद्ध 



No comments:

Post a Comment