न्यूज़ पेपर से काटी हुई कतरनों सी धड़कने हैं,
आड़ी तिरछी सी जुड़ करके साँसों की ख़बरें सुनाती हैं,
चंद बीते लम्हों के साये हैं,
जो आज भी शाम ढले,
दालान में मेरे साथ बैठे रहते हैं,
और वो आँगन के बीच में खड़ा नीम का पेड़ भी है,
जो हमेशा अकड़ा हुआ रहता था,
अब ज़रा सी कमर झुक गयी है बस,
हाँ वो कलकत्ता प्रिंट के परदे भी हैं,
जो तुमने बड़े जतन से हमारे कमरे में लगाये थे,
रंग ज़रूर उड़ गया है उनका मगर मेरी ऐनक से अब भी वो आसमानी नज़र आते हैं,
जिस पे चढ़ के तुम सारे घर के जाले छुड़ाती थीं,
लकड़ी का वो स्टूल भी अब तक है,
तीन ही टांगे बची हैं अब उसकी,
ये ही कुछ असबाब हैं मेरे पास बस और क्या,
इन्हीं असबाबों में मैं भी तुम्हारी ही इक निशानी सा बना हुआ,
सुबह से शाम ज़िन्दगी के चक्कर गिनता हूँ,
उस राह को ताका करता हूँ,
जिसपे से तुम फिर आने का ऐहद करके गयीं थीं.
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अनिरुद्ध
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