Friday, November 29, 2013

कच्ची सी वो लड़की

कच्ची आँखों में पक्की सी नज़रें लिए,
रेल के डिब्बे की सबसे आख़िरी वाली खिड़की से,
आसमान की ओर टकटकी लगाये,
कच्ची सी वो लड़की,
जाने क्या ताने बुन रही थी,
नमी आँखों से उतरी या फिर ख्वाब कोई पिघला,
कि आंसूं की इक बूँद चुपचाप गालों पे बह चली,
चार रुपये की टिकली और आठ रुपये के गजरे,
रेल के उस डिब्बे में बिकने लगे,
उसके ख्वाब के तानों को पकड़ने की हसरत में,
उस आख़िरी सीट की खिड़की से,
मैंने झाँक के आसमां को देखा,
बादलों में बना इक घर था,
आँगन बुहारती अम्मा थीं,
खेत से वापस आ कर बैलों को चारा देते बाबूजी थे,
देहरी पर रंगोली बनाती एक छोटी बहन थी,
और था इक पक्का सा दरवाज़ा,
जो उस कच्ची सी लड़की के लौट के आने की  राह देख रहा था.


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अनिरुद्ध 
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