तेरे बिना भी पहले सा जीता हूँ मैं,
बस ज़िन्दगी कुछ ठहरी सी चलती है अब,
सुबह दफ़्तर भी जाता हूँ,
और काम में मसरूफ़ भी रहता हूँ,
वक़्त ज़रा थम के निकलता है,
पर गुज़र ही जाता है,
शाम होते होते नम सा कुछ,
आँखों में पिघलने लगता है,
और सीने में इक ग़ुबार सा उठता है,
सर्द हवा का एक झोंका,
कंपकंपाते लबों को ख़ुश्क कर जाता है,
तेरे नाम की सदा गले में रुंध जाती है,
फिर भी तेरा नाम होंठों पे नहीं लाता हूँ मैं,
तेरे बिना भी पहले सा जीता हूँ मैं,
कान दरवाज़े पे रख देता हूँ,
और आती-जाती हर आहट में,
तुझको सुनने की कोशिश करता हूँ,
बिस्तर पे बिछी चादर की,
बेतरतीब सलवटों से उठती तेरी ख़ुश्बू को,
हाथों में समेट लेता हूँ,
अलमीरा के ऊपर रखे बक्से में बंद तेरे ख़त,
फिर से पढ़ता हूँ ,
तेरी आवाज़ की धुंधली सी तस्वीर बन जाती है,
तेरे ख़याल का हुजूम दिल में रुलने लगता है,
फिर भी तुझे लौटने को आवाज़ नहीं देता हूँ मैं,
तेरे बिना भी पहले सा जीता हूँ मैं,
बस ज़िन्दगी कुछ ठहरी सी चलती है अब,
हाँ ज़िन्दगी कुछ ठहरी सी चलती है अब
--
अनिरुद्ध
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License.
No comments:
Post a Comment