Wednesday, February 5, 2020

मुहब्बत का इंतज़ाम अच्छा है

मुहब्बत का इतना ही इंतज़ाम अच्छा है
ख़लिश होती रहे सुब्ह-ओ-शाम अच्छा है

ना सांस आती है और ना जान जाती है,
इश्क़ में तेरे यूँ क़िस्सा तमाम अच्छा है

लिफ़ाफ़े में टुकड़े थे मेरे ही ख़तों के
ब-निस्बत-ए-ख़ामोशी ये पयाम अच्छा है

जेबों को मेरी है कब से हाज़त-ए-रफ़ू
बाज़ार में मेरा जो मिले वो दाम अच्छा है

सीधे क़दम चल रहा हूँ मैं पी लेने के बाद
ना ये दौर अच्छा ना ये दौर-ए-जाम अच्छा है

वादे हैं होंठों पर और हाथों में है खंजर
मुल्क़ के हाक़िमों का सब निज़ाम अच्छा है

मंदिर मस्ज़िद से निकल वो आया तेरे आस्तां
उसके रहने को साक़ी ये मक़ाम अच्छा है

बहर में नहीं ना सही ख़बर में नहीं ना सही
दिलजलों में गूँजे तो मेरा क़लाम अच्छा है

--
अनिरुद्ध



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