समंदर किनारे की वो गीली रेत,
जो तुम्हारे क़दमों से लिपट के मेरे घर आई थी,
अब तलक मेरे कमरे में बिखरी पड़ी है,
इसी रेत पर,
अलसाई आँखों में तुम्हारी हंसी छुपाये वो रात,
अब दिन चढ़े भी सोती रहती है,
हाँ वही रात,
जिसने चौपाटी पर,
आसमान की थाली में सितारों की पानी-पूरी परोसी थी,
और वो चाँद,
जो खिड़की पे अटका हुआ,
तुम्हारी शोख़ शरारतों पर मुस्कुरा रहा था,
तुम्हारी अंगड़ाई पे होश खो कर,
रात के दामन में सिमटा हुआ,
छुपा रहता है,
तुम्हारे होंठों की छुअन से सुर्ख़ हुई मेरी कमीज़,
अब अलमीरा में बाकी मेरे कपड़ों को चिढ़ाती है,
इतनी सौगातों का रोज़ पहरा देता हूँ,
तुम आ कर अपनी अमानत संभाल लो स्वीटो,
आजकल रोज़ दफ़्तर को देर हो जाती है.
--
अनिरुद्ध
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