लोग तब आंसुओं को पी रहे थे,
जब हंसी,
आँखों में ग़ुम हो रही थी,
रोते, सिसकते, दौड़ते, हांफते लोग,
दम तोड़ती मासूमियत को बचाने की,
ईमानदार कोशिश कर रहे थे,
मैं भी तो वहीँ था,
ख़्वाब देखता हुआ,
जब हंसी वाकई आँखों में ग़ुम हो रही थी,
मैंने हाथ बढाया भी,
मगर मेरे हाथों की कपकपाहट देख कर,
हंसी की आँखों में आंसू आ गए,
और अपने ही रोने पे हैराँ हंसी,
आँखों में ग़ुम हो गयी,
हाँ-
उन आंसुओं का खारापन,
अब तलक चेहरे पे चिपका हुआ है,
मेरे अंदर की आग ने,
मेरी आँखों में जमी बर्फ़ को पिघलाया भी,
लेकिन हंसी के आसुओं का नमक,
मेरे चेहरे से नहीं उतरा,
जानता हूँ,
की हसीं का मातम ज़्यादा दिनों तक नहीं चलेगा,
कल फिर कुछ नया ग़ुम होगा,
कल फिर कुछ जुदा मरेगा,
और मैं,
उसके लिए अपने आँखों की बर्फ़ पिघलाऊंगा,
नए की ख़ातिर,
पुराने को भूल जाऊंगा,
हमेशा की तरह,
हमेशा के लिए.
--
अनिरुद्ध
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