क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे,
अगर खुशियाँ लिखता हूँ,
तो ग़म,
आवारा स्कूली बच्चों की तरह,
हँसी के पर्दों के पीछे से झाँकने लगता है,
और अगर ग़म लिखता हूँ,
तो खुशियाँ,
गाँव के बनिए की तरह,
अपने एहसान का तकाज़ा करने लगती हैं,
सवाल फिर सवाल ही रह जाता है,
क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे,
अगर सच लिखता हूँ,
तो झूठ,
नुक्कड़ पे खड़े लड़कों की तरह,
तायने और फ़िक़रे कसने लगता है,
और अगर झूठ लिखता हूँ,
तो सच,
ज़िद्दी बच्चे की तरह,
आँखों में मोटे आंसू ला कर रोने लगता है,
सवाल फिर सवाल ही रह जाता है,
क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे,
सोचता हूँ की अपने दिल का हाल लिख दूँ,
थोड़ी खुशियाँ होंगी, थोड़ा सच होगा,
थोड़े ग़म होंगे, थोड़ा झूठ होगा,
थोड़ा मैं रहूँगा, बाकी तुम रहोगी,
फिर सोचता हूँ,
मुझसे बेहतर तो तुम मुझे जानती हो,
ग़म, ख़ुशी, सच, झूठ और मेरी धड़कने,
गवाही देते हैं,
और सवाल जवाब बन जाता है,
क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे.
--
अनिरुद्ध
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