तन्हा रातों के उदास साये,
शाम के धुंधलके में चुपके से आ कर अपने पाँव पसार देते हैं,
एक और दिन के बीत जाने का एलान करते हैं,
मटमैले ख्वाबों की अधूरी सी हसरत,
आँखों पर नींद का बोझ डालती है,
मगर कमबख्त पलकें हैं की बंद नहीं होती,
तेरे आने के एहेद पर,
रस्ते पे बिछी रहती हैं,
दुआ अब यही की,
बेख़याली में ही सही,
मगर इस रस्ते से तू गुज़रे,
तेरे क़दमों का बोसा हो,
और आँखें बंद हो जायें.
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अनिरुद्ध
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