Sunday, June 16, 2013

दिल ढूंढता है फिर वो ही फुर्सत के रात-दिन

वो पुरानी गली में घर मेरा,
वो नये मुहल्ले में मकां तेरा,
और वो मेरी लाल रंग की साइकिल,
जिस पर कैंची काट कर,
बेवजह तेरे स्कूल के चक्कर लगते थे,
दोस्तों से ज़्यादा फ़िक़र,
तब गेट पे खड़े चौकीदार की होती थी,
कूलर की ठंडी हवा छोड़,
अमरुद के पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर बैठ,
तेरे कमरे की बंद खिड़की को भी,
पूरी दोपहर ताका करते थे,
और पहली बारिश के साथ खुलते स्कूल के पहले दिन,
बस तेरी ही एक झलक ढूंढा करते थे,
वो भी क्या दिन थे,
आँखों में मासूमियत और दिल में तेरे अरमान होते थे,
और होती थी दोनों हाथों में बस फुर्सतें,

हाँ ग़ालिब साब,
दिल ढूंढता है फिर वो ही फुर्सत के रात-दिन...
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अनिरुद्ध
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