अधूरी सी वो इक नज़्म,
आहिस्ता आहिस्ता सांस लेती है,
तुम्हारे लौट आने की राह देखा करती है,
पथराई सी आँखों में ख़्वाब सजाया करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
तिनके तिनके जोड़ के काफ़िये बनाया करती है,
तुम्हारी पलकों के सिरहाने बैठ के,
तुक मिलाने के अरमां बुना करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
टूटे दरवाज़े के पैबंद लगे पर्दों से,
बाहर झाँका करती है,
रास्तों पे तुम्हारे लौटते क़दमों के निशां ढूंढा करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
रात दिन बस दुआ में,
तुम्हारी मुस्कुराहटों की खुशबू से,
पूरा होने की मन्नतें माँगा करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
हर उठती खांसी के साथ मुझसे लड़ा करती है,
तुम्हारे रूठ के जाने का ताना दिया करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
न जाने क्यूँ,
तुमको पढ़ कर मुक़म्मल होना चाहती है,
हर लम्हा मुझसे यही पूछा करती है,
क्या तुम इक बार मेरे करीब आ कर,
मेरे कानों में कुछ गुनगुना कर,
या फिर,
मेरे दिल को अपनी निगाहों से महका कर,
इस अधूरी सी नज़्म
और-
अधूरी सी मेरी तमन्नाओं को,
मुक़म्मल करोगी.
--
अनिरुद्ध
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