Wednesday, November 14, 2012

फिर कभी और सही


कहने को है ये, और बहुत कुछ,
मगर सोचता हूँ, फिर कभी और सही,
जब शफ़क़ पे डूबती हो साँसें,
और हसरतों की लौ बुझने लगे,
तब तेरे पहलु से उठ के,
तेरे कानों में ये कहूँ,
की तुम मेरी ज़िन्दगी,
सारी उमर मुझसे दूर क्यूँ रहीं,

कहने को है ये, और बहुत कुछ,
मगर सोचता हूँ, फिर कभी और सही,
जब धड़कनों का शोर हो मद्धम,
और ख़ामोशी को पढ़ती हों तेरी निगाहें,
तब तेरे आग़ोश से उठे के,
तेरे कानों में ये कहूँ,
की तुम मेरी हमनशीं,
सारी उमर मुझसे ख़फ़ा क्यूँ रहीं,

कहने को है ये, और बहुत कुछ,
मगर सोचता हूँ, फिर कभी और सही,
जब एक ख़्वाब की आँखों से आंसू बरसें,
और ख़ुशकिस्मत रात भीगती हुई पिघलती रहे,
तब तेरे ज़ानू से उठ के,
तेरे कानों में ये कहूँ,
की तुम मेरी बंदगी,
सारी उमर मुझसे जुदा क्यूँ रहीं,

कहने को है ये, और बहुत कुछ,
मगर सोचता हूँ, फिर कभी और सही,
हाँ कभी और सही.
--
अनिरुद्ध
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