Tuesday, November 6, 2012

पता है तुम्हें


पता है तुम्हें,
नींद से बोझल हो कर,
जब तुम्हारी आँखें खुलती बंद होती हैं,
तो उनमे मुझे,
तुम्हारे ख़्वाब दिखाई देते हैं,
सतरंगी पंख लगाये वो ख़्वाब,
उड़ के मेरे क़रीब आते हैं,
मुझसे इसरार करते हैं,
कि मैं उन्हें मेहताब के कन्धों पे बिठा के,
उम्मीद के उस देस ले चलूँ,
जहाँ वो सारे ख़्वाब तामीर हो सकें,
पता है तुम्हें,
बालकनी में खड़े हो के,
जब तुम शाम के मटमैले आसमान में,
अपना इक सितारा ढूंढ़ती हो,
तो तुम्हारे दिल में बसी हसरतें,
मुझे सुनाई देती हैं,
आँखों में मासूमियत लिए वो हसरतें,
चल के मेरे क़रीब आती हैं,
मुझसे ज़िद करती हैं,
कि मैं उन्हें वक़्त के खिलोने में चाबी भर के,
ख़यालों के उस देस ले चलूँ,
जहाँ वो सारी हसरतें पूरी हो सकें,
इसीलिए मैंने रात दिन के इस सफ़र से,
तन्हाई के चंद लम्हें चुरायें हैं,
ख्वाबों के चंद क़तरे बटोरें हैं,
हसरतों के चंद ज़र्रे समेटे हैं
और इक तसव्वुर की पनाह ढूंढ़ी है,
अब जब शफ़क़ पे नया चाँद निकले,
तो तुम अपने सारे ख़्वाब और सारी हसरतें लिए,
मेरे दिल में उतर आना,
फिर कोई ख़्वाब तुम्हारा या हसरत ही कोई,
ना-मुक़म्मल बाक़ी नहीं रहेगी.
--
अनिरुद्ध
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