Thursday, February 21, 2019

आधे-अधूरे मिसरे

पुरानी किसी ग़ज़ल के मिसरों की तरह हो गयी है तू
आधी-अधूरी याद
आधी-अधूरी भूली सी

नग़मा कोई पुराना सुन लूँ
या फिर
क़िताब कोई पुरानी उठा लूँ
तो वक़्त ख़ुद को दोहराने लगता है
यादों के सफ़हों पे
धुंधला-धुंधला ही सही
तेरा चेहरा उभरने सा लगता है

पूरी शाम कोशिश करूँ
सारे बिख़रे हुये क़िस्से समेटूँ
तब जा के रात ढले
तेरी मुस्कराहट की शबनम बरसती है
चेहरा फिर भी साफ़ नज़र नहीं आता
मग़र रात की तन्हाई में ज़रा आसरा सा हो जाता है

तेरे वादों को हौले-हौले सुलगा लूँ कभी
सिगरेट की तरह
तो आँखों में लाल डोरे तैरने लगते हैं
साफ़ कुछ दिखाई ना दे भले
पर तेरी साँसों की गरमी
सीने में मेहसूस सी होने लगती है

बहुत जी चाहा
कि, उस शहर के उसी मोड़ से
जहाँ ये मिसरे अधूरे रह गये थे
तुझे आवाज़ दे के बुला लूँ
और इन्हें मुक़म्मल कर दूँ
मग़र अब आशिक़ी सी हो गयी है
इन आधे-अधूरे मिसरों से

--
अनिरुद्ध

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