Wednesday, February 26, 2014

गाँव

बरसों बाद अपने गाँव लौटा तो पाया
कि रास्ता तो वही है जो शहर से आता है
पहले कच्चा होता था बस
दोनों तरफ उस रास्ते के दरख़्त होते थे
दूरी बहुत थी शहर से तब
धूप में छाँव देते थे
अब वही रास्ता पक्का हो गया है कॉन्क्रीट से
और रास्ते के दोनों तरफ़ खम्बे लग गये हैं बिजली के
दरख़्त नहीं हैं अब
धूप में छाँव नहीं होती और सफ़र तेज़ क़दम चलता है
इस पक्के रास्ते से अब हवायें शहर की
मेरे गाँव में आती हैं
बहुत सा शहर मेरे गाँव की हवा में घुल गया है
पीपल के उस दरख़्त के नीचे
अब शाम को चौपाल नहीं लगती
अपने-अपने घरों में लोग टीवी देखा करते हैं
खेतों से वापस आते बैलों के गले में पड़ी घंटियाँ
अलग ही सुर में शाम का हाथ पकड़ कर ले आती थी
उन सुरों पर अब ट्रैक्टरों का शोर चढ़ गया है
पुराने मंदिर के साथ वाले तालाब में
कमल के फूलों की जगह प्लास्टिक की पन्नियाँ तैरती हैं अब
तालाब से लगा हुआ एक बड़ा मैदान होता था
बच्चे वहाँ हर तरह के खेल खेलते थे
उसी मैदान में अब लेक-फेसिंग विला बन गए हैं
वहीँ मैदान से इक पगडंडी पाठशाला को निकलती थी
टेढ़ी-मेढ़ी सी उस पगडंडी के सहारे
ऊँचा सा एक नीलगिरी का दरख़्त होता था
मोबाइल का टावर लग गया वहाँ पर
परिंदे आज भी अपने घरौंदों की तलाश में
उस टावर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं
लोग कहते हैं कि तरक्क़ी हुई है
मुझे तो गाँव का नाम चिपकाये वही अजनबी शहर दिखता है


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अनिरुद्ध
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8 comments:

  1. Bahor hi khoobsoorat sir. Panktiyaan padhte padhte main sach mein eo peepal ka ped, talaab ke kamal ko yaad karne laga tha. Aisa laga jaise kho chuka hun sab. Shayad hamesha ke liye. Anyways..bahot pyaara likha hai

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    1. Thanx for the appreciation Rishi.
      Ab to yahi lagta hai ki wo sab jise mehsus karke, choo ke bachpan guzra wo sab kahin kho gaya hai.

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  2. after a long time read your poetry. it has changed a lot and have become so much more beautiful

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    1. Hey Megha, thanks a lot.
      Aisi hi feedback deti reh, hopefully main aur bhi achha likhunga :)

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