Monday, January 14, 2013

आईना


मेरे आईने में अब मेरा अक्स नहीं है,
लम्बी जद्दोज़हद के बाद,
इक अक्स अपना बचा था, परेशां हूँ-
न जाने कहाँ खो दिया,
डरता हूँ कहीं ज़माने के हाथ लग गया,
तो ना जाने क्या हशर होगा,
इस माहौल में
इन्सां तक गुम हो जाते हैं,
वो तो फिर भी इक अक्स था,
ग़म तो नहीं,
मगर अफ़सोस है,
इतने ईमानदार अक्स आजकल मिलते कहाँ हैं,
समझ नहीं आता,
कहाँ चला गया,
कभी तुम्हे मिल जाये तो मेरे पास ले आना,
इस बार संभाल के रखने की कोशिश करूँगा,
इधर कुछ दिनों से,
बेचैन सा रहता था,
अक्सर- सिर्फ तुम्हारी ही बातें किया करता था,
रातों को नींद में तुम्हारा नाम पुकारा करता था,
इक दिन तंग आ कर
मैंने झिड़क दिया-
ये क्या है कि तुम हमेशा उसकी ही बातें करते हो,
शायद- इसी से नाराज़ हो कर कहीं चला गया,
ना जाने क्यूँ,
पर,
इक अजीब सा ख़याल दिल में आ रहा है,
क्या तुमने अपना आईना देखा है,
कि मेरे आईने में तो अब,
तुम्हारा चेहरा नज़र आता है
--
अनिरुद्ध
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