Friday, October 5, 2012

लफ्ज़ नहीं मिलते हैं मुझको


आड़े तिरछे सन्नाटों के सायों से
हाथ छुड़ा कर
इक तनहा सी ख़ामोशी तेरी
आवाजों की महफ़िल में
चुपके चुपके चली आई है
काग़ज़ों पे फिर क़लम घुमा कर
अनजाने कुछ हर्फ़ जमा कर
मैंने सोचा अक्स बना दूँ
तेरी इस ख़ामोशी का
पर लफ्ज़ नहीं मिलते हैं मुझको
--
अनिरुद्ध
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