रात चाँद फिर आँखों में उतर आया,
फिर बेसुध आँखों में नींदें जलीं,
जले बुझे से कुछ ख़्वाबों ने उस राख़ से पुकारा मुझे,
करवट बदल के बिस्तर के उस ख़ाली हिस्से को देखा,
जहाँ अब भी तुम्हारे बदन के निशां बाक़ी हैं,
एक फ़ीकी सी हंसी आँखों की कतारों को नम कर गयी,
इक ज़रा सी रात तुम बिन कटती नहीं,
अब तो लौट आओ जानां,
की अपने ही घर में बंजारों सा फिरता हूँ मैं,
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अनिरुद्ध
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