Friday, October 5, 2012

साथ-साथ

ना मालूम ये कब हुआ कैसे हुआ मगर घर ये धीरे-धीरे
मक़ान में तब्दील हो गया
और हम तुम
जिनसे आबाद था ये घर
मक़ान वाले हो गए
बालकनी पर खड़े हो कर
शाम के डूबते सूरज के साथ
चाय की चुस्कियों के बीच
पूरे दिन का हाल अब नहीं सुनाते तुम
वो वक़्त अब लैपटॉप पे हिसाब मिलाने में निकल जाता है
मरीन ड्राइव पे हाथ थामे
ऊँची ऊँची इमारतों के सायों में जब हम घूमा करते थे
तब वक़्त बहुत होता था जेबों में
हफ़्ता-दर-हफ़्ता तुमसे मिलती हूँ अब
हफ़्ता-दर-हफ़्ता कोई अजनबी आ कर रहने लगता है तुम्हारी जगह
और वो नज़्मे
जो बहती थीं कभी आँखों से तुम्हारी
अब ऐनक के पीछे से भी झांकती नहीं
ख़ुद को खो कर तुमको पाया था जब
मुक़म्मल महसूस किया था मैंने
तुमको खो कर अब जो हासिल होता है
क़तरा-क़तरा वजूद मिटाता है वो
सुनो
अबकी बार सालगिरह पर
तोहफे में
अपने साथ हसरतें मेरी और मेरा घर ले आना
--
अनिरुद्ध
(Inspired by movie साथ-साथ)
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