Saturday, October 27, 2012

रात रुक जाओ


काम कुछ ख़ास तो नहीं,
मगर यूँ उठ के ना जाओ,
रात की ही तो बात है,
और थोड़ी सी ही जान बाकी है,
रुक जाओ,
आसमां का छोर पकड़ लो हाथों में,
और जब बेख़बर हो चाँद,
तो हौले से झटक दो आसमां,
मुट्ठी भर सितारे तुम्हारे दामन में टूट गिरेंगे
टूटे सितारों से दामन सजाओ,
रात की ही तो बात है,
और थोड़ी सी ही जान बाकी है,
रुक जाओ,
या फिर समेट लो बाँहों में ग़म मेरे,
और जब बेदिल सी लगे ख़ुशी,
तो लोरी सुना के बहला लो उनको,
कुछ क़तरा ग़म तुम्हारी आँखों में सो पड़ेंगे,
मेरे ग़म अपनी आँखों में सुलाओ,
रात की ही तो बात है,
और थोड़ी सी ही जान बाकी है,
रुक जाओ,
ना हो तो कुछ गर्द ही हटा दो लफ़्ज़ों से,
और जब शोर सी लगने लगे ये धड़कने,
तो डूबती नब्ज़ में बाँध दो लफ़्ज़ों को,
चंद नज्में सूनी सी तुम्हारे कानों में हंस पड़ेंगी,
इन नज़्मों की हंसी को गुनगुनाओ,
रात की ही तो बात है,
और थोड़ी सी ही जान बाकी है,
रुक जाओ.
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Sunday, October 21, 2012

जानां


रात चाँद फिर आँखों में उतर आया,
फिर बेसुध  आँखों में नींदें जलीं,
जले बुझे से कुछ ख़्वाबों ने उस राख़ से पुकारा मुझे,
करवट बदल के बिस्तर के उस ख़ाली हिस्से को देखा,
जहाँ अब भी तुम्हारे बदन के निशां बाक़ी हैं,
एक फ़ीकी सी हंसी आँखों की कतारों को नम कर गयी,
इक ज़रा सी रात तुम बिन कटती नहीं,
अब तो लौट आओ जानां,
की अपने ही घर में बंजारों सा फिरता हूँ मैं,

--
अनिरुद्ध
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Saturday, October 13, 2012

हम भी फ़साना कह देंगे


कभी हम भी फ़साना कह देंगे गुज़रा वो ज़माना कह देंगे
रुन्धते से गले नम सी आँखें सब हाल पुराना कह देंगे

जो ज़ख्म पुरानी यादों के फिर से ताज़ा हो जाएँ तो
आँखों से बरसते आंसू को खुशियों का बहाना कह देंगे

फिर घड़ी दो घड़ी ग़म होगा फिर घड़ी दो घड़ी खुशियाँ भी
और रुखसत लेते लम्हों में वादा वो पुराना कह देंगे

झूठी कसमें झूठी रस्में झूठी तारीफों के हमदम
सच का आईना दिखलाया तो हमें लोग बेगाना कह देंगे

यादें साँसें नगमें धड़कन वादे काँटे खंज़र और दिल
तेरी सौगातें बतला दें तो 'तश्ना' को दीवाना कह देंगे

--
अनिरुद्ध
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Saturday, October 6, 2012

ज़िन्दगी फिर चाँद माथे पर चढ़ा कर आई है

भूले हुए ख़्वाबों को आँखों में बसा कर आई है,
ज़िन्दगी फिर चाँद माथे पर चढ़ा कर आई है

शाहों ने बिठाये पहरे चाँद सूरज तारों पर,
शम्मा ये अंधेरों को फिर ठेंगा दिखा कर आई है

इस सुबह में रात की कालिख मिटाई जाएगी,
ये सुबह फिर रौशनी सर पे सजा कर आई है

तुम बढ़ा दो दूरियां क़दमों से मंजिल की मेरी,
हौसलों को चाहतें धड़कन बना कर आई है

लाख चाहे अब बना ले मौत का सामां कोई,
जीस्त आक़ा-ए-मौत से नज़रें मिला कर आई है
--
अनिरुद्ध
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Friday, October 5, 2012

लफ्ज़ नहीं मिलते हैं मुझको


आड़े तिरछे सन्नाटों के सायों से
हाथ छुड़ा कर
इक तनहा सी ख़ामोशी तेरी
आवाजों की महफ़िल में
चुपके चुपके चली आई है
काग़ज़ों पे फिर क़लम घुमा कर
अनजाने कुछ हर्फ़ जमा कर
मैंने सोचा अक्स बना दूँ
तेरी इस ख़ामोशी का
पर लफ्ज़ नहीं मिलते हैं मुझको
--
अनिरुद्ध
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साथ-साथ

ना मालूम ये कब हुआ कैसे हुआ मगर घर ये धीरे-धीरे
मक़ान में तब्दील हो गया
और हम तुम
जिनसे आबाद था ये घर
मक़ान वाले हो गए
बालकनी पर खड़े हो कर
शाम के डूबते सूरज के साथ
चाय की चुस्कियों के बीच
पूरे दिन का हाल अब नहीं सुनाते तुम
वो वक़्त अब लैपटॉप पे हिसाब मिलाने में निकल जाता है
मरीन ड्राइव पे हाथ थामे
ऊँची ऊँची इमारतों के सायों में जब हम घूमा करते थे
तब वक़्त बहुत होता था जेबों में
हफ़्ता-दर-हफ़्ता तुमसे मिलती हूँ अब
हफ़्ता-दर-हफ़्ता कोई अजनबी आ कर रहने लगता है तुम्हारी जगह
और वो नज़्मे
जो बहती थीं कभी आँखों से तुम्हारी
अब ऐनक के पीछे से भी झांकती नहीं
ख़ुद को खो कर तुमको पाया था जब
मुक़म्मल महसूस किया था मैंने
तुमको खो कर अब जो हासिल होता है
क़तरा-क़तरा वजूद मिटाता है वो
सुनो
अबकी बार सालगिरह पर
तोहफे में
अपने साथ हसरतें मेरी और मेरा घर ले आना
--
अनिरुद्ध
(Inspired by movie साथ-साथ)
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