ख़्वाब बुनती थी दिन की निगाहें पहले,
गिरहें तुम्हारे दुपट्टे में बांध के,
दिन,
ना जाने कितने ही ख़्वाबों को छुपा जाता था,
और शरीर रात,
चुपके से इक-इक गिरह खोल के,
उन ख़्वाबों का ज़ायका लेती थी,
दिन तुम्हारे दुपट्टे की सिलवटों में,
रात की शरारत से भीगी,
मेरी तुम्हारी महक को पा कर,
मुंह फुला लेता था,
मगर फिर तुम्हारी नज़रों की सुर्ख़ी,
और चेहरे की हया देख,
मुस्कुराता
और गिरहें ख़्वाबों की फिर तुम्हारे दुपट्टे में बाँधने लगता,
इधर कुछ वक़्त से,
दिन की नज़रें कुछ कमज़ोर सी हो गयी हैं,
तुम्हारी नज़रों की इबारत,
अब इससे ठीक पढ़ी भी नहीं जाती,
अब तुम्हारे दुपट्टे में कोई गिरह ख़्वाब की,
मिलती नहीं,
बे-आसरा रात आजकल उदास रहती है,
और अपनी ही सर्द आहों में क़ैद होकर,
ज़र्रा ज़र्रा गुज़र जाती है,
ज़रा अपनी ऐनक तो देना स्वीटो,
दिन की आँखों पे चढ़ा दूंगा,
ताकि रात को,
फिर तुम्हारा ही कोई ख़्वाब मिले.
--
अनिरुद्ध
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