मेरे दिल के आँगन में,
बन के बरखा उतरा एक मौसम,
कुछ अपना कुछ बेगाना सा,
कुछ सपना कुछ अफसाना सा,
उसकी इक-इक बात में ढल के,
हर पल मुझ पर बरसा मौसम,
उससे मिलने से पहले तक,
हर मौसम अच्छा लगता था,
अब अच्छा लगता ना मुझको,
उसके पहले और बाद का मौसम,
वो देखे तो बदल छायें,
वो हँस दे तो बारिश हो,
उसके चेहरे की रंगत पढ़ कर,
अपना रंग बदलता मौसम,
शाम ढली फिर रात भी गुज़री,
वो इक मंज़र पे ठहर गया,
बस उसकी ही बातें करता,
मुझ जैसा इक पगला मौसम.
--
अनिरुद्ध
P.S. I wrote this poem for a friend who wanted to give it to a girl as a proposal.
Today both are happily married.
To different people.
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License.
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