Tuesday, March 5, 2013

इन्तज़ा


सुबह की मासूम आँखों से देखे थे,
ख़्वाब कई कच्चे से,
हड़बड़ी में यूँ ही मोड़ के,
तकिये के नीचे रख दिए थे सारे,
अब शाम तक कई सलवटें आ गयी हैं उनमें,
तुम आज जल्दी घर आ जाओ,
और अपनी सांसों की गर्मी उधार दे दो,
की रात भर इस्त्री कर,
इन ख़्वाबो की सारी सलवटें दूर करनी हैं

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अनिरुद्ध
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This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License.

Sunday, March 3, 2013

मसाला चाय


पूरी रात तकिये पे,
तुम्हारी महक़ अनमनी सी लेटी रही,
मगर बेख़बर नाक़,
कानों पर खर्राटे चढ़ा,
चादर ताने सोती रही,
तुम्हारी चढ़ी हुई त्योरियाँ देख कर पाजी सूरज,
आज सुबह से ही मुझे चिढ़ा रहा है,
ये सर्दी का भी हिसाब कच्चा है,
जब देखो तब बेमौसम आ कर मेरे सर पे सवार हो जाती है,
तेरी मसाला चाय का ही अब आसरा है स्वीटो,
ताकी सर्दी जाये,
नाक़ ख़बरदार रहे,
और रात भर मुझे तेरी महक़ दोनों हाथों में थामे रहे
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अनिरुद्ध

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