Tuesday, March 6, 2018

मुख़्तसर आरज़ू

मुख़्तसर सी आरज़ू थी मेरी
किसी दिन मेरा नाम लेकर
तुम वही इक अहद करती
एक रूमानी सी ग़ज़ल कोई
कानों में गुनगुना उठती
साँसों की थकन
आँसुंओं में रुल पड़ती
तन्हाईयाँ मेरी सारी की सारी
तुम्हारी आवाज़ में ग़ुम जाती
ज़िन्दगी तुम्हारी आँखों के नूर में
फिर झिलमिला उठती
वक़्त के इस ताने-बाने में
तुम्हारे मेरे अफ़साने का
रेशा एक छोटा सा जुड़ जाता
और ज़िन्दगी इस एक लम्हे में
पूरे माने पा लेती

मुख़्तसर सी ये आरज़ू मेरी
ग़र किसी दिन तुमने मुक़्क़मल कर दी होती...

--
अनिरुद्ध







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