Thursday, July 16, 2015

मैं तुम्हें फ़िर मिलूँगी

मल्लिका-ऐ-नज़्म ने,
जाते जाते यूँ कह दिया,
मैं तुम्हें फ़िर मिलूँगी,
इक शायर ये सुन कर,
दरवेश बना फ़िरता है,
फ़लक़ दर फ़लक़ भटकता है,
क़ायनात के हर ज़र्रे में,
बस उसे ही ढूँढता है,
अक़्सर मेरे पास आता है,
अगले सफ़र का रसद लेने,
एक-दो घड़ी ग़र ज़्यादा बिठा लूँ उसे,
तो हड़बड़ा कर,
बिना कुछ कहे सुने भागता है,
नादाँ है - समझता ही नहीं,
पलट कर कभी,
वक़्त की राह पर बने,
क़दमों के निशां देखता ही नहीं,
कि अगर देखे तो जाने,
मल्लिका-ऐ-नज़्म,
उसकी क़लम से टपकते,
इक-इक लफ़्ज़ को चुनती है,
गीत, ग़ज़लें, नज़्में बुनती उसके ही पीछे चलती है,
ज़िन्दग़ी का ये मज़्मुआ,
जिस दिन मुक़्क़मल होगा,
उस दिन सबसे ऊँचे फ़लक़ पर,
वो उसे फिर मिलेगी.

--

अनिरुद्ध

(Inspired by "Main Phir Tumhe Milungi" by Amrita Pritam)


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This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License.

Wednesday, June 17, 2015

हाइकु # 02

नज़रें देखें
इश्क़ वस्ल हिज़्र
दुनियां यही.

--
अनिरुद्ध


Monday, June 15, 2015

हाइकु # 01

साँसों में बाँधी
दिल की हसरतें
आँखों से बही

--
अनिरुद्ध

Saturday, May 30, 2015

बोसा

रात नींद में,
मुस्कुराई थी तुम,
ख़्वाब कोई देखा होगा,
मिसरी की डली सा,
आँखों का बोसा,
बड़ा मीठा सा लगा.

--
अनिरुद्ध

Saturday, March 28, 2015

गुलज़ार साहब के गीत, उनकी नज़्में या उनके अफ़साने हमेशा ही इक नया सा एहसास पैदा करते हैं.
उनका अंदाज़-ऐ-बयां उनको एक अलग मुक़ाम पे खड़ा करता है.
उनके गीतों में नज़्म बहती मिलती है, तो उनकी नज़्मों में गीत ठहरते से मिलते हैं .
और कभी-कभी यूँ भी होता है की उनके गीतों में छुपी नज़्म चुपचाप आँख बचा के निकल जाती है.
तो मेरी ये कोशिश गुलज़ार साहब के गीतों में छुपी नज़्मों को ढूंढने की है.
ये सारा कुछ जो अब मैं यहाँ लिखूंगा, वो मेरा अपना Interpretation है.
हो सकता है की आप इत्तेफ़ाक़ न रखें उससे या ये भी हो सकता है की मैंने ही समझने में भूल कर दी हो.
बुरा मत मानना,
मुझे भी बताना ताकि कुछ सटीक काम हो सके और ये कोशिश ज़ाया ना जाये.

और एक बात,
यहाँ उनके गीतों को सिलसिलेवार, आसान ज़ुबान में Translate करने का काम नहीं होगा.
उसके लिए और बहुत से Blogs हैं.
यहाँ कोशिश बस यही रहेगी की गीतों में छुपी नज़्म को आपके सामने रख सकूँ.
उम्मीद है की मैं खरा उतरूँ, और आप इसे पसंद करें.

--
अनिरुद्ध

जुगलबंदी # 02 

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जुगलबंदी # 01 

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जुगलबंदी एक क़ोशिश है अलहदा सी.
स्वप्निल दोस्त है मेरा.
अच्छा Computer-Programmer है और उससे भी बेहतर Photographer है.
तो अब होगा ये की Photo वो लेगा और उसको Theme बनाकर मैं कुछ लिखूंगा.
फिर ये भी होगा की पहले मैं कुछ लिखूंगा और उसको Theme बनाकर वो Photo लेगा.
उम्मीद है की कोशिश पसंद आएगी, रंग लाएगी और किसी नये की शुरुवात होगी.

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अनिरुद्ध


स्वप्निल का Blog यहाँ है.