Monday, November 3, 2014

कॉन्ट्राडिक्शन

वो पथ तेरा तू पथिक उसका,
ये राह मेरी मैं मुसाफ़िर इसका,
ऊपर चम्पई सा इक टुकड़ा आकाश तेरा,
ठीक उसके बाजू में थोड़ा मटमैला फ़लक़ मेरा,
सिन्दूरी वो सूरज,
शाम ढले तेरे पथ तक उतर आता है,
मेरी राहों में,
दोपहर ढले ऊंचीं इमारतों के पीछे छुप जाता है,
सूरज की बिंदिया लगाये,
और चाँद को पहलू में छुपाये,
रात तेरे पथ की,
तुझे नींदों में ले जाती है,
स्ट्रीट-लैंप्स जलाये,
और बिजली की बत्ती पहलू में छुपाये,
रात मेरी राह की,
मुझे ख़्वाबों के पीछे दौड़ाती है,
आ ज़रा इस कॉन्ट्राडिक्शन को मुँह चिढ़ायें,
कभी तू मेरी राह चले,
कभी मैं तेरा पथ नापूँ ,
पथ तेरा कभी मेरे ख़्वाबों में पले,
राह कभी मेरी तेरी नींदों में ढले,
इक बार ही सही मगर कभी,
आ ना यार ऐसा करके देखें.

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अनिरुद्ध 
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Thursday, April 3, 2014

डे-लाइट सेविंग

बड़ी खुरपेंच की,
घड़ी से मिन्नतें भी की,
काँटे आगे पीछे दौड़ाये,
बड़ा आगे छोटा पीछे,
मगर वो एक घंटा जाने कहाँ गुम हुआ,
कि अब तलक मिला नहीं,
अजब हेरा-फेरी है,
अजब ये फितूर है,
जाने क्या शह है ये मुई डे-लाइट सेविंग भी.

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अनिरुद्ध 
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Monday, March 31, 2014

हेयर-पिन

ज़ुल्फ़ की वो डोर,
जिसे एक हाथ से सँभालते हुये,
तुम आँटा गूँधती हो,
हाँ वही डोर जिसमे अटक कर,
चाँद शरारतें करता है,
और रात के ख्वाब दिन में,
मुँह छुपाये ऊँघते रहते हैं,
वही डोर ना जाने कब,
मेरी कमीज़ से लिपट कर,
रोज़ साथ चली आती है,
सारा दिन दफ्तर में तुम महक़ती रहती हो,
सारा दिन दफ्तर में मैं तुम्हारी ख़ुश्बू बटोरता हूँ,
इन ज़ुल्फ़ों को हेयर-पिन से बाँध लो स्वीटो,
ग़म-ए-रोज़गार है,
दफ्तर है,
और बहुत काम भी है.


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अनिरुद्ध




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Wednesday, February 26, 2014

गाँव

बरसों बाद अपने गाँव लौटा तो पाया
कि रास्ता तो वही है जो शहर से आता है
पहले कच्चा होता था बस
दोनों तरफ उस रास्ते के दरख़्त होते थे
दूरी बहुत थी शहर से तब
धूप में छाँव देते थे
अब वही रास्ता पक्का हो गया है कॉन्क्रीट से
और रास्ते के दोनों तरफ़ खम्बे लग गये हैं बिजली के
दरख़्त नहीं हैं अब
धूप में छाँव नहीं होती और सफ़र तेज़ क़दम चलता है
इस पक्के रास्ते से अब हवायें शहर की
मेरे गाँव में आती हैं
बहुत सा शहर मेरे गाँव की हवा में घुल गया है
पीपल के उस दरख़्त के नीचे
अब शाम को चौपाल नहीं लगती
अपने-अपने घरों में लोग टीवी देखा करते हैं
खेतों से वापस आते बैलों के गले में पड़ी घंटियाँ
अलग ही सुर में शाम का हाथ पकड़ कर ले आती थी
उन सुरों पर अब ट्रैक्टरों का शोर चढ़ गया है
पुराने मंदिर के साथ वाले तालाब में
कमल के फूलों की जगह प्लास्टिक की पन्नियाँ तैरती हैं अब
तालाब से लगा हुआ एक बड़ा मैदान होता था
बच्चे वहाँ हर तरह के खेल खेलते थे
उसी मैदान में अब लेक-फेसिंग विला बन गए हैं
वहीँ मैदान से इक पगडंडी पाठशाला को निकलती थी
टेढ़ी-मेढ़ी सी उस पगडंडी के सहारे
ऊँचा सा एक नीलगिरी का दरख़्त होता था
मोबाइल का टावर लग गया वहाँ पर
परिंदे आज भी अपने घरौंदों की तलाश में
उस टावर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं
लोग कहते हैं कि तरक्क़ी हुई है
मुझे तो गाँव का नाम चिपकाये वही अजनबी शहर दिखता है


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अनिरुद्ध
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Sunday, February 23, 2014

बस-स्टॉप

तन्हाई के हाथों से
माज़ी की क़िताब उलट-पलट रहा था
कि सफहों के बीच दबी
इक लम्बी सी फ़ेहरिस्त ख्वाबों की
नीचे गिर पड़ी
उसे उठा के देखा तो पाया
कि वक़्त के साथ दौड़ते हुए
जो आँखों ने भुला दिए थे
वही ख्वाब क़रीने से लगा रखे हैं
बालकनी पे चढ़कर
चाँद को छू लेने का ख्वाब
फ़लक़ जहाँ ज़मीं का बोसा लेता है
वहाँ घर बनाने का ख्वाब
अपनी ही ज़िन्दग़ी से
फ़ुरसतों के लम्हे चुराने का ख्वाब
तुम्हारी मुहब्बत में
टूट कर फ़ना हो जाने का ख्वाब
तुम्हारी हँसी की रुबाइयों को
गुनगुना लेने का ख्वाब
इन तमाम ख्वाबों को
फिर से आँखों में सजाने का ख्वाब
सुनो,
तन्हाईयाँ सताने लगे जब तुमको भी
तो पुरानी सड़क के उसी बस स्टॉप पर आ जाना
जहाँ शाम की आख़िरी बस का इंतज़ार करते हुए
पहली बार गले लगाकर मुझे
तुमने इन हसीन ख्वाबों का आग़ाज़ किया था
उस बस स्टॉप की दो सीटें
आज भी हमारी राह देखती हैं
फ़ेहरिस्त में चुन-चुन के ख्वाब जोड़ती हैं.


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अनिरुद्ध
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