Friday, May 1, 2020

क़सक

सोचता हूँ
की ग़र पैसों की तरह होती धड़कने
तो संभाल कर ज़ेबों में रखते
ज़रुरत पड़ने पर ही ख़र्च करते
थोड़ी ज़्यादा जो हो जाती
तो अलमिरा में सहेज लेते
या किसी यार को
ख़ास मौक़े पे तोहफ़े में देते
या फिऱ
किसी अजनबी की मदद में ख़र्चते 
और जो अगर कम पड़ जातीं
तो किसी दोस्त से उधार ले लेते
या फिऱ पुराना कोई सामान बेच कर
इंतज़ाम कर लेते

अफ़सोस
की पैसों की तरह नहीं हैं धड़कने
अपने हिस्से की सबके पास
कितनी हैं पता नहीं
लेकिन अक़्सर
ज़रूरतों से कम हैं



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अनिरुद्ध 



Thursday, April 2, 2020

ख्वाबों का क्या होगा

चलो ये वादा किया
की नज़्म या ग़ज़ल कोई
जिसमें तुम्हारा ज़िक्र हो
नहीं कहूँगा

चलो ये अहद भी ठहरा
की क़िस्सा या कहानी कोई
जो अपने फ़साने सी हो
नहीं लिखूँगा

चलो ये क़सम भी ली
की समां या मंज़र कोई
जो हमारे माज़ी सा हो
नहीं देखूँगा

चलो ये भी मंज़ूर किया
की आरज़ू या तमन्ना कोई
जिनसे रिश्ता हो मेरा तुम्हारा
नहीं करूँगा

ये सब कुछ मैं कर भी लूँ मगर जानां
ये तो कहो
की जागती आँखों के वो ख़्वाब
जो तुम रोज़ देखती हो
जिनमें तामीर होते हैं मरासिम अपने
वो ख़्वाब
जो मेरे ख़ामोश इसरार
और तुम्हारे अनकहे इक़रार
को हर लम्हा दोहराते हैं
हाँ वही ख़्वाब
जिनके मुक़्क़म्मल होने की दुआ लिये
तुम्हारा वजूद
हरदम सजदे में रहता है
उन ख्वाबों का क्या होगा

कहो तो जानां
उन मासूम ख़्वाबों का क्या होगा

--
अनिरुद्ध 



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Wednesday, February 5, 2020

मुहब्बत का इंतज़ाम अच्छा है

मुहब्बत का इतना ही इंतज़ाम अच्छा है
ख़लिश होती रहे सुब्ह-ओ-शाम अच्छा है

ना सांस आती है और ना जान जाती है,
इश्क़ में तेरे यूँ क़िस्सा तमाम अच्छा है

लिफ़ाफ़े में टुकड़े थे मेरे ही ख़तों के
ब-निस्बत-ए-ख़ामोशी ये पयाम अच्छा है

जेबों को मेरी है कब से हाज़त-ए-रफ़ू
बाज़ार में मेरा जो मिले वो दाम अच्छा है

सीधे क़दम चल रहा हूँ मैं पी लेने के बाद
ना ये दौर अच्छा ना ये दौर-ए-जाम अच्छा है

वादे हैं होंठों पर और हाथों में है खंजर
मुल्क़ के हाक़िमों का सब निज़ाम अच्छा है

मंदिर मस्ज़िद से निकल वो आया तेरे आस्तां
उसके रहने को साक़ी ये मक़ाम अच्छा है

बहर में नहीं ना सही ख़बर में नहीं ना सही
दिलजलों में गूँजे तो मेरा क़लाम अच्छा है

--
अनिरुद्ध



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Friday, July 12, 2019

यादों की पोटली

यादों और वादों की वही पुरानी पोटली
साफ़-सफ़ाई के दौरान फिर निकल आयी
आँखों के किनारे कहीं जमे हुये कुछ ख़्वाब
फिर तंज़ कसने लगे
उन ख़्वाबों से नज़रें चुरा कर पोटली के अंदर देखा
तो पाया की पूरनमासी का वो चाँद
जो उस पहली रात को
चुपके से हाथों में भर लिया था
रोज़ घुल-घुल के आधा रह गया है
नये रतजगों के वो गीले लाल डोरे
जो कभी तुम्हारी आँखों में रहा करते थे
उनमें सीलन आ गयी है
और साँसों की वो गर्मी
जिससे हमने ना जाने कितने ही रात और दिन पिघलाए थे
वो सर्द आहों में रोज़ ठिठुरती है
ख़ैर-
इन बातों का तुम ज़रा सा भी मलाल न करना
हाल ही के दिनों में इकट्ठा हुई
कुछ नयी यादें और कुछ नये वादे भी
इसी पुरानी पोटली में रख दिये हैं
अबकी यूँ करना
की मेरी इस पुरानी पोटली को भी
वक़्त के उसी मंज़र पर छोड़ आना
जहाँ तुम अपनी यादें और वादें छोड़ आये हो

--
अनिरुद्ध 


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Thursday, February 21, 2019

आधे-अधूरे मिसरे

पुरानी किसी ग़ज़ल के मिसरों की तरह हो गयी है तू
आधी-अधूरी याद
आधी-अधूरी भूली सी

नग़मा कोई पुराना सुन लूँ
या फिर
क़िताब कोई पुरानी उठा लूँ
तो वक़्त ख़ुद को दोहराने लगता है
यादों के सफ़हों पे
धुंधला-धुंधला ही सही
तेरा चेहरा उभरने सा लगता है

पूरी शाम कोशिश करूँ
सारे बिख़रे हुये क़िस्से समेटूँ
तब जा के रात ढले
तेरी मुस्कराहट की शबनम बरसती है
चेहरा फिर भी साफ़ नज़र नहीं आता
मग़र रात की तन्हाई में ज़रा आसरा सा हो जाता है

तेरे वादों को हौले-हौले सुलगा लूँ कभी
सिगरेट की तरह
तो आँखों में लाल डोरे तैरने लगते हैं
साफ़ कुछ दिखाई ना दे भले
पर तेरी साँसों की गरमी
सीने में मेहसूस सी होने लगती है

बहुत जी चाहा
कि, उस शहर के उसी मोड़ से
जहाँ ये मिसरे अधूरे रह गये थे
तुझे आवाज़ दे के बुला लूँ
और इन्हें मुक़म्मल कर दूँ
मग़र अब आशिक़ी सी हो गयी है
इन आधे-अधूरे मिसरों से

--
अनिरुद्ध

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