बरसों बाद अपने गाँव लौटा तो पाया
कि रास्ता तो वही है जो शहर से आता है
पहले कच्चा होता था बस
दोनों तरफ उस रास्ते के दरख़्त होते थे
दूरी बहुत थी शहर से तब
धूप में छाँव देते थे
अब वही रास्ता पक्का हो गया है कॉन्क्रीट से
और रास्ते के दोनों तरफ़ खम्बे लग गये हैं बिजली के
दरख़्त नहीं हैं अब
धूप में छाँव नहीं होती और सफ़र तेज़ क़दम चलता है
इस पक्के रास्ते से अब हवायें शहर की
मेरे गाँव में आती हैं
बहुत सा शहर मेरे गाँव की हवा में घुल गया है
पीपल के उस दरख़्त के नीचे
अब शाम को चौपाल नहीं लगती
अपने-अपने घरों में लोग टीवी देखा करते हैं
खेतों से वापस आते बैलों के गले में पड़ी घंटियाँ
अलग ही सुर में शाम का हाथ पकड़ कर ले आती थी
उन सुरों पर अब ट्रैक्टरों का शोर चढ़ गया है
पुराने मंदिर के साथ वाले तालाब में
कमल के फूलों की जगह प्लास्टिक की पन्नियाँ तैरती हैं अब
तालाब से लगा हुआ एक बड़ा मैदान होता था
बच्चे वहाँ हर तरह के खेल खेलते थे
उसी मैदान में अब लेक-फेसिंग विला बन गए हैं
वहीँ मैदान से इक पगडंडी पाठशाला को निकलती थी
टेढ़ी-मेढ़ी सी उस पगडंडी के सहारे
ऊँचा सा एक नीलगिरी का दरख़्त होता था
मोबाइल का टावर लग गया वहाँ पर
परिंदे आज भी अपने घरौंदों की तलाश में
उस टावर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं
लोग कहते हैं कि तरक्क़ी हुई है
मुझे तो गाँव का नाम चिपकाये वही अजनबी शहर दिखता है
--
अनिरुद्ध
कि रास्ता तो वही है जो शहर से आता है
पहले कच्चा होता था बस
दोनों तरफ उस रास्ते के दरख़्त होते थे
दूरी बहुत थी शहर से तब
धूप में छाँव देते थे
अब वही रास्ता पक्का हो गया है कॉन्क्रीट से
और रास्ते के दोनों तरफ़ खम्बे लग गये हैं बिजली के
दरख़्त नहीं हैं अब
धूप में छाँव नहीं होती और सफ़र तेज़ क़दम चलता है
इस पक्के रास्ते से अब हवायें शहर की
मेरे गाँव में आती हैं
बहुत सा शहर मेरे गाँव की हवा में घुल गया है
पीपल के उस दरख़्त के नीचे
अब शाम को चौपाल नहीं लगती
अपने-अपने घरों में लोग टीवी देखा करते हैं
खेतों से वापस आते बैलों के गले में पड़ी घंटियाँ
अलग ही सुर में शाम का हाथ पकड़ कर ले आती थी
उन सुरों पर अब ट्रैक्टरों का शोर चढ़ गया है
पुराने मंदिर के साथ वाले तालाब में
कमल के फूलों की जगह प्लास्टिक की पन्नियाँ तैरती हैं अब
तालाब से लगा हुआ एक बड़ा मैदान होता था
बच्चे वहाँ हर तरह के खेल खेलते थे
उसी मैदान में अब लेक-फेसिंग विला बन गए हैं
वहीँ मैदान से इक पगडंडी पाठशाला को निकलती थी
टेढ़ी-मेढ़ी सी उस पगडंडी के सहारे
ऊँचा सा एक नीलगिरी का दरख़्त होता था
मोबाइल का टावर लग गया वहाँ पर
परिंदे आज भी अपने घरौंदों की तलाश में
उस टावर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं
लोग कहते हैं कि तरक्क़ी हुई है
मुझे तो गाँव का नाम चिपकाये वही अजनबी शहर दिखता है
--
अनिरुद्ध
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License.