Sunday, November 12, 2017

शाम का वादा

अब तलक इंतज़ार है मुझे
एक शाम का वादा था मुझसे
पहले की तरह गुज़ारोगे
कहा था तुमने
हाँ मसरूफ़ियत बहुत हो गयी है इन दिनों
उम्र का वो दौर हो आया है कि
कहने सुनने को बाकी नहीं कुछ भी
फ़िर भी इंतज़ार है मुझे

यूँही मेज़ पर पैर रख के बैठे रहना
चाय की चुस्कियां लेते हुए
मीर या ग़ालिब की ग़ज़ल कोई
एक दफ़ा फ़िर पढ़ लेना
तुम्हारी रुमानियत भरी आवाज़ सुने मुद्दत हुई
फ़िर भी इंतज़ार है मुझे

बोलना भले ही कुछ भी नहीं
और दफ़्तर का काम ज़्यादा हो तो
लैपटॉप अपना खोल के ऐनक आँखों पे चढ़ा लेना
तुम्हारी आँखों के लाल डोरे
ऐनक के शीशों में शायद ना दिखें
फ़िर भी इंतज़ार है मुझे

एक शाम का वादा था मुझसे
अब तलक इंतज़ार है मुझे

--
अनिरुद्ध







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