Monday, March 31, 2014

हेयर-पिन

ज़ुल्फ़ की वो डोर,
जिसे एक हाथ से सँभालते हुये,
तुम आँटा गूँधती हो,
हाँ वही डोर जिसमे अटक कर,
चाँद शरारतें करता है,
और रात के ख्वाब दिन में,
मुँह छुपाये ऊँघते रहते हैं,
वही डोर ना जाने कब,
मेरी कमीज़ से लिपट कर,
रोज़ साथ चली आती है,
सारा दिन दफ्तर में तुम महक़ती रहती हो,
सारा दिन दफ्तर में मैं तुम्हारी ख़ुश्बू बटोरता हूँ,
इन ज़ुल्फ़ों को हेयर-पिन से बाँध लो स्वीटो,
ग़म-ए-रोज़गार है,
दफ्तर है,
और बहुत काम भी है.


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अनिरुद्ध




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