Sunday, February 23, 2014

बस-स्टॉप

तन्हाई के हाथों से
माज़ी की क़िताब उलट-पलट रहा था
कि सफहों के बीच दबी
इक लम्बी सी फ़ेहरिस्त ख्वाबों की
नीचे गिर पड़ी
उसे उठा के देखा तो पाया
कि वक़्त के साथ दौड़ते हुए
जो आँखों ने भुला दिए थे
वही ख्वाब क़रीने से लगा रखे हैं
बालकनी पे चढ़कर
चाँद को छू लेने का ख्वाब
फ़लक़ जहाँ ज़मीं का बोसा लेता है
वहाँ घर बनाने का ख्वाब
अपनी ही ज़िन्दग़ी से
फ़ुरसतों के लम्हे चुराने का ख्वाब
तुम्हारी मुहब्बत में
टूट कर फ़ना हो जाने का ख्वाब
तुम्हारी हँसी की रुबाइयों को
गुनगुना लेने का ख्वाब
इन तमाम ख्वाबों को
फिर से आँखों में सजाने का ख्वाब
सुनो,
तन्हाईयाँ सताने लगे जब तुमको भी
तो पुरानी सड़क के उसी बस स्टॉप पर आ जाना
जहाँ शाम की आख़िरी बस का इंतज़ार करते हुए
पहली बार गले लगाकर मुझे
तुमने इन हसीन ख्वाबों का आग़ाज़ किया था
उस बस स्टॉप की दो सीटें
आज भी हमारी राह देखती हैं
फ़ेहरिस्त में चुन-चुन के ख्वाब जोड़ती हैं.


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अनिरुद्ध
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