Thursday, February 21, 2013

ग़ज़ल मुक़म्मल कर दी है


अरसा हुआ मैंने कुछ लिखा नहीं,
कई दिनों से तुमने भी कुछ कहा नहीं,
सर्दी की धूप की तरह,
फुर्सत के लम्हे कम लगते हैं,
इसलिए सोचा की क्यूँ ना आज तुम्हारे नाम की ग़ज़ल लिख दूँ,
या फिर तुम्हारी निगाहों पर रुबाईयां,
या अशआर कोई जो हंसी तुम्हारी फिर गुनगुना ले,
लफ़्ज़ों की मारामारी है,
पुराने सब दोहरा चुका हूँ,
कई-कई मर्तबा,
और नये लफ़्ज़ों की मेहनत से भी बचना चाहता हूँ,
लिखने की क़वायद में क़लम हाथ में लिए बैठा हूँ,
डायरी का खाली वो सफ़हा खुल के हँसता है मुझ पर,
खिड़की से आँगन में झांक के देखा,
तुम शाम के डूबते सूरज की पूजा करती दिखती हो,
घर को, मुझको बांध के ख़ुद से,
तुम रोज़ एक नयी इबारत लिखती हो,
ज़िन्दगी के वीराने को,
आशियाँ का नाम देती हो,
एहसासों का हुजूम,
आँखों को तर कर जाता है,
लफ्ज़ कोई या मिसाल ही कोई,
कैसे बांधे जज़बातों के इस दरिया को,
खाली उस सफ़हे पे नाम तुम्हारा लिख कर,
ग़ज़ल मुक़म्मल कर दी है

--
अनिरुद्ध

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