Friday, November 29, 2013

कच्ची सी वो लड़की

कच्ची आँखों में पक्की सी नज़रें लिए,
रेल के डिब्बे की सबसे आख़िरी वाली खिड़की से,
आसमान की ओर टकटकी लगाये,
कच्ची सी वो लड़की,
जाने क्या ताने बुन रही थी,
नमी आँखों से उतरी या फिर ख्वाब कोई पिघला,
कि आंसूं की इक बूँद चुपचाप गालों पे बह चली,
चार रुपये की टिकली और आठ रुपये के गजरे,
रेल के उस डिब्बे में बिकने लगे,
उसके ख्वाब के तानों को पकड़ने की हसरत में,
उस आख़िरी सीट की खिड़की से,
मैंने झाँक के आसमां को देखा,
बादलों में बना इक घर था,
आँगन बुहारती अम्मा थीं,
खेत से वापस आ कर बैलों को चारा देते बाबूजी थे,
देहरी पर रंगोली बनाती एक छोटी बहन थी,
और था इक पक्का सा दरवाज़ा,
जो उस कच्ची सी लड़की के लौट के आने की  राह देख रहा था.


--
अनिरुद्ध 
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Monday, September 9, 2013

डायरी

याद है तुमको,
अपने पहले जेबख़र्च के पैसों से,
इक डायरी तुमने, 
तोहफे में दी थी मुझको,
आड़े तिरछे बे-ढंगे से लफ़्ज़ों के,
अधपके से ताने-बाने,
और बनावटी एहसासों के,
कच्चे-कच्चे कुछ अफ़साने,
मैंने उसमें,
अपने तब के हालातों के नाम लिखे थे,
और जब तुमसे आखरी बार रुखसत ली,
तब उसको सीने से लगा कर,
अपनी आँखों का ख़ालीपन, 
शब की तन्हाई में भीगा कर,
ज़र्रा-ज़र्रा उसमें दर्ज़ किया था,
मेरे इश्क़ में लिपटी,
और तेरे लम्स से महकी,
वो डायरी,
अब भी मेरे हालातों का हिस्सा है,
उस डायरी के सफ़हों पे अब, 
राशन का हिसाब होता है.


--

अनिरुद्ध
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Sunday, August 18, 2013

फिर इक़ कहानी

वक़्त कहता है फिर इक़ कहानी मुझसे,
उसकी हंसी मुस्कराहट तोतली ज़ुबानी मुझसे

हम जागें तो वो सोये, हम सोयें तो वो रोये,
मिलती है उसकी शरारत-ओ-शैतानी मुझसे

ये आँखें तेरी सी वो नाक मेरी सी,
मिलने आई है अम्मा की दुआ पुरानी मुझसे

मन्नतों के रास्तों से जन्नतों के दर तक,
ख़ुश हैं ख़ुदा क़ायनात और जिंदगानी मुझसे

--
अनिरुद्ध

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Sunday, June 16, 2013

दिल ढूंढता है फिर वो ही फुर्सत के रात-दिन

वो पुरानी गली में घर मेरा,
वो नये मुहल्ले में मकां तेरा,
और वो मेरी लाल रंग की साइकिल,
जिस पर कैंची काट कर,
बेवजह तेरे स्कूल के चक्कर लगते थे,
दोस्तों से ज़्यादा फ़िक़र,
तब गेट पे खड़े चौकीदार की होती थी,
कूलर की ठंडी हवा छोड़,
अमरुद के पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर बैठ,
तेरे कमरे की बंद खिड़की को भी,
पूरी दोपहर ताका करते थे,
और पहली बारिश के साथ खुलते स्कूल के पहले दिन,
बस तेरी ही एक झलक ढूंढा करते थे,
वो भी क्या दिन थे,
आँखों में मासूमियत और दिल में तेरे अरमान होते थे,
और होती थी दोनों हाथों में बस फुर्सतें,

हाँ ग़ालिब साब,
दिल ढूंढता है फिर वो ही फुर्सत के रात-दिन...
--
अनिरुद्ध
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Tuesday, March 5, 2013

इन्तज़ा


सुबह की मासूम आँखों से देखे थे,
ख़्वाब कई कच्चे से,
हड़बड़ी में यूँ ही मोड़ के,
तकिये के नीचे रख दिए थे सारे,
अब शाम तक कई सलवटें आ गयी हैं उनमें,
तुम आज जल्दी घर आ जाओ,
और अपनी सांसों की गर्मी उधार दे दो,
की रात भर इस्त्री कर,
इन ख़्वाबो की सारी सलवटें दूर करनी हैं

--
अनिरुद्ध
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Sunday, March 3, 2013

मसाला चाय


पूरी रात तकिये पे,
तुम्हारी महक़ अनमनी सी लेटी रही,
मगर बेख़बर नाक़,
कानों पर खर्राटे चढ़ा,
चादर ताने सोती रही,
तुम्हारी चढ़ी हुई त्योरियाँ देख कर पाजी सूरज,
आज सुबह से ही मुझे चिढ़ा रहा है,
ये सर्दी का भी हिसाब कच्चा है,
जब देखो तब बेमौसम आ कर मेरे सर पे सवार हो जाती है,
तेरी मसाला चाय का ही अब आसरा है स्वीटो,
ताकी सर्दी जाये,
नाक़ ख़बरदार रहे,
और रात भर मुझे तेरी महक़ दोनों हाथों में थामे रहे
--
अनिरुद्ध

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Thursday, February 21, 2013

ग़ज़ल मुक़म्मल कर दी है


अरसा हुआ मैंने कुछ लिखा नहीं,
कई दिनों से तुमने भी कुछ कहा नहीं,
सर्दी की धूप की तरह,
फुर्सत के लम्हे कम लगते हैं,
इसलिए सोचा की क्यूँ ना आज तुम्हारे नाम की ग़ज़ल लिख दूँ,
या फिर तुम्हारी निगाहों पर रुबाईयां,
या अशआर कोई जो हंसी तुम्हारी फिर गुनगुना ले,
लफ़्ज़ों की मारामारी है,
पुराने सब दोहरा चुका हूँ,
कई-कई मर्तबा,
और नये लफ़्ज़ों की मेहनत से भी बचना चाहता हूँ,
लिखने की क़वायद में क़लम हाथ में लिए बैठा हूँ,
डायरी का खाली वो सफ़हा खुल के हँसता है मुझ पर,
खिड़की से आँगन में झांक के देखा,
तुम शाम के डूबते सूरज की पूजा करती दिखती हो,
घर को, मुझको बांध के ख़ुद से,
तुम रोज़ एक नयी इबारत लिखती हो,
ज़िन्दगी के वीराने को,
आशियाँ का नाम देती हो,
एहसासों का हुजूम,
आँखों को तर कर जाता है,
लफ्ज़ कोई या मिसाल ही कोई,
कैसे बांधे जज़बातों के इस दरिया को,
खाली उस सफ़हे पे नाम तुम्हारा लिख कर,
ग़ज़ल मुक़म्मल कर दी है

--
अनिरुद्ध

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Sunday, January 27, 2013

इस्मत की कहानियाँ

इस्मत की कहानियों में सच्चाई पूरी की पूरी होती है। आप पसंद करे या नहीं इससे कोई सरोकार इस्मत को कभी रहा ही नहीं, और यही वजह रही है की उनकी कहानियों के उनके आलोचक भी मुरीद रहे हैं। अपने ज़माने से आगे की कहानियां, जिन्हें हम आज 'प्रोग्रेसिव' कहानियां कहते हैं, 1940-1950 के दशक में भी इस्मत की ख़ासियत थी। उनकी ऐसी ही बेबाक़ कहानियों का एक संग्रह 'सॉरी मम्मी' के नाम से प्रकाशित हुआ है। 
शीर्षक कहानी 'सॉरी मम्मी' कहानी है एक ऐसी एंग्लो-इंडियन महिला मिस्सेस मिच्चेल उर्फ़ मम्मी की जो की शरीफों की बस्ती में शराफ़त से लड़कियों का धंधा किया करती थी। पति के समय पूर्व देहांत से उपजी परिस्थितियों से लड़कर, हारकर, समझौता कर, पूरी नेक नियत से मम्मी यह काम करती थी। अपनी ही बनाई दुनियाँ में मशगूल मम्मी, खुद को चिर-यौवना समझती थी, और इसीलिए जब एक रात एक सुनसान गली में एक शराबी ने उनके साथ बदसलूकी करने की कोशिश की तो उनको सदमा लगा। इस बात का नहीं की उनकी इज्ज़त पर बात बन आई थी मगर इस बात का की शराबी से छीना -झपटी के दौरान जब उनकी नकली बत्तीसी गिर गयी तो वो शराबी सॉरी मम्मी बोल के भाग गया। बनावट ही सही मग़र मम्मी की दुनियाँ का सच भी वही था और इस्मत ने वो ज्यों का त्यों बयां किया। 
'कल्लू की माँ' नामक कहानी में इस्मत ने बड़ी खूबी से उस दौर के समाज का विरोधाभास पेश किया है। समाज की ठुकराई एक बेसहारा औरत अपने बच्चे का पेट भरने को बड़े लोगों के घरों की जूठन धोती और ख़ुद जूठी होने से बचती। पति के गुज़र जाने के बाद से लोगों ने बुरी नियत और गालियों के सिवा उसको और उसके बच्चे को कुछ न दिया। फ़िर एक दिन जब बड़े मियाँ ने अपनी तीमारदारी से खुश हो के निकाह का प्रस्ताव रखा तो ज़मीनी सच्चाई ने उसे मजबूर कर दिया की अपने दादा की उम्र के मर्द से निकाह पढ़ ले। 
महिला सम्लैंगिकता का पहला-पहल इशारा इस्मत की कहानी 'लिहाफ़' में मिलता है। ये कहानी इतनी चर्चित हुई की कुछ झूठी शान ओढ़े समाज के ठेकेदारों ने इस्मत पर अश्लीलता का मुक़दमा भी दायर कर दिया। क़ानून ने फ़ैसला इस्मत के हक़ में दिया और ज़माना इस्मत का क़ायल हो गया। उस दौर मे इस तरह के मुद्दे पर कहानी कहने का साहस इस्मत जैसी बाग़ी शाख्सियत के ही बस की बात हो सकती थी।
इस्मत ने अपनी कहानियों में ज़माने को औरतों के नज़रिए से पेश किया। रिश्ते-नाते और उनके बीच की बनावट या खालीपन कुछ भी इस्मत की निगाहों से न बच सका, फिर चाहे 'नींद' की शहनो हो या 'बहू -बेटियाँ' की मरियम और हुरमा या फिर 'नन्ही की नानी' की नानी माँ हो। सबका हाले-दिल बड़ी ही बेबाकी से पेश किया है।

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Monday, January 14, 2013

सफ़र


जब बातें बनेंगी
और फ़साने निकलेंगे
और कुछ लोग
हम जैसे दीवाने निकलेंगे
फिर चाहतों के नगमें
मुहब्बतों की आयतें होंगी
वस्ल, हिज़्र, आंसूं,हंसी
रोज़मर्रा की रिवायतें होंगी
इन सबको इक पिटारे में भर कर
वक़्त-
फिर इक सफ़र पे निकलेगा
तुम्हें और मुझे साथ लिए
तुम्हारी और मेरी ही तलाश में
--
अनिरुद्ध
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दस्तक


फिर दरवाज़े पे दस्तक हुई है
मैं जानता हूँ की आने वाला
इक ऐसा तूफ़ान है
जो आएगा और सब कुछ तबाह कर जायेगा
फिर भी कमबख्त दिल
ये उम्मीद करता है
कि शायद इस बार तुम हो
मैं दरवाज़ा खोलता हूँ
और तूफ़ान गुज़र जाता है
अपने पीछे बर्बादियों का मंज़र छोड़कर
दिल एक बार फिर नाकाम है
उम्मीदें और नाकामियां
और उनके बीच फंसा हुआ मैं
जुट जाता हूँ
सब कुछ पहले सा बनाने में
ताकि फिर एक नई दस्तक कि राह देख सकूँ
अंधेरा बढ़ने लगा है
मगर दिल ना उम्मीद नहीं है
उसे यकीं है
कि कभी न कभी तुम आओगी
और जज़्बातों पे जमी बर्फ पिघलेगी
मेरा हाथ पकड़ कर तुम
मुझे नाकामी कि इस अँधेरी दुनिया से दूर
रौशनी के उस जहाँ में ले चलोगी
जहां कभी दिल नहीं टूटेंगे
मैं जानता हूँ
कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला
टूटना दिल कि किस्मत है
वो टूटेगा ही
न तुम आओगी
न मेरा जहाँ बदलेगा
मैं ये भी जानता हूँ
कि इन्ही तूफानों में इक दिन बिखर जाऊंगा मैं
लेकिन फिर भी
मैं मजबूर हूँ
हर दस्तक पे दरवाज़ा खोलने के लिए
--
अनिरुद्ध
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क़वायद


सच्चे झूठे लफ्ज़ पका कर
कच्ची पक्की बातों के कुछ
मोटे मोटे रोट पकाये
खट्टी मीठी मुस्कुराहटों से
बातों के वो रोट सजाये
और-तुम्हारे आने की ख़बरों से
रस्ते महकाए
यूँ शुरू की फिर
आँखों की जानिब रात गुज़ारने की रस्में
--
अनिरुद्ध
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आईना


मेरे आईने में अब मेरा अक्स नहीं है,
लम्बी जद्दोज़हद के बाद,
इक अक्स अपना बचा था, परेशां हूँ-
न जाने कहाँ खो दिया,
डरता हूँ कहीं ज़माने के हाथ लग गया,
तो ना जाने क्या हशर होगा,
इस माहौल में
इन्सां तक गुम हो जाते हैं,
वो तो फिर भी इक अक्स था,
ग़म तो नहीं,
मगर अफ़सोस है,
इतने ईमानदार अक्स आजकल मिलते कहाँ हैं,
समझ नहीं आता,
कहाँ चला गया,
कभी तुम्हे मिल जाये तो मेरे पास ले आना,
इस बार संभाल के रखने की कोशिश करूँगा,
इधर कुछ दिनों से,
बेचैन सा रहता था,
अक्सर- सिर्फ तुम्हारी ही बातें किया करता था,
रातों को नींद में तुम्हारा नाम पुकारा करता था,
इक दिन तंग आ कर
मैंने झिड़क दिया-
ये क्या है कि तुम हमेशा उसकी ही बातें करते हो,
शायद- इसी से नाराज़ हो कर कहीं चला गया,
ना जाने क्यूँ,
पर,
इक अजीब सा ख़याल दिल में आ रहा है,
क्या तुमने अपना आईना देखा है,
कि मेरे आईने में तो अब,
तुम्हारा चेहरा नज़र आता है
--
अनिरुद्ध
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तुम


धडकनों में गूंजी ज़िन्दगी की सदा हो जैसे,
माँ ने जो मांगी खुशियों की दुआ हो जैसे,

अधखुली पलकों पे सुरमई ख्वाबों सी,
रूह से लिपटी रब की अदा हो जैसे,

कच्चे वादों की पक्की सी डोर से,
बंधती तमन्नाओं की इन्तज़ा हो जैसे,

सजदे में खुदा के दिल से जो निकली,
वो हसरत हो आरज़ू हो वफ़ा हो जैसे,

'तशना' से बेहतर तुम्हें किसने है जाना,
क़ायनात की सलामती की इक्तिज़ा हो जैसे.
--
अनिरुद्ध
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Saturday, January 12, 2013

राजमा-चावल


हंसी की धीमी आंच पे,
थोडा हिलाकर थोडा डुलाकर,
चुनिन्दा खयालातों का शोख रस मिलाकर,
एक कड़ाही शोरबे की तैयार की तुमने,
फिर दिल की सारी दुआओं के मसाले भूने,
और-
अपनी मुहब्बत की खुशबू से महकी,
कुछ हरी मिर्च की कतरने भी डाली,
कुछ देर यूँ ही जज़बातों के साथ,
लौ में पकाया

क्या खूब स्वाद बने हैं,
तेरे राजमा-चावल स्वीटो.
--
अनिरुद्ध
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तुम्हारी ख़ातिर


शब्दों का मायाजाल नहीं,
भाषा हो मौन की,
और बातें तुम्हारे मेरे प्यार की,
जज़्बात-
जो बेज़ारी की कब्र में दफ़न हैं कहीं,
उन्हें मिले जहाँ एक नयी ज़िन्दगी,
ऐसा एक संसार बनाना है मुझे,
तुम्हारी ख़ातिर,
ग़मों की धूप नहीं,
छाया हो मुहब्बत की,
और ठंडक तुम्हारे आँचल की,
मासूमियत-
जो बनावट के पैरों तले दब गयी हैं कहीं,
उसे मिले जहाँ एक नयी रवानी,
ऐसा एक दिल बनाना है मुझे,
तुम्हारी ख़ातिर.
--
अनिरुद्ध
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मुहब्बत


ख़ामोश आवाजें सुनोगे तो मुहब्बत समझ में आयेगी,
भीड़ में तन्हा रहोगे तो मुहब्बत समझ में आयेगी,

लफ़्ज़ों का हमेशा कोई मतलब नहीं होता,
बेमाने लफ्ज़ पढ़ोगे तो मुहब्बत समझ में आयेगी,

ज़ुबां से हर बात कहना रिश्तों में नहीं लाज़मी,
निगाहों से बात करोगे तो मुहब्बत समझ में आयेगी,

दीवाने दुनियां में तुम्हे और भी मिलेंगे,
'तशना' को याद करोगे तो मुहब्बत समझ में आयेगी.
--
अनिरुद्ध
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कुछ रिश्ते अनजाने से


कुछ रिश्ते अनजाने से, अनछुए दीवाने से,
कच्चे धागों में लिपटे से,
मन के भावों में सिमटे से,
हम मिलकर भी बेगाने से,
कुछ रिश्ते अनजाने से,

कुछ कह कर चुप रह जाने से,
चुप रह कर सब कह जाने से,
किस्सों और फ़साने से,
कुछ रिश्ते अजनाने से,

आँखों के पैमाने से,
खुशियों के मयखाने से,
साँसों के आने जाने से,
कुछ रिश्ते अनजाने से, अनछुए दीवाने से.
--
अनिरुद्ध
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मेरे सपनों में आना


दीपोत्सव के दीपों से जब अँधियारा घट जाये,
बसंत की मंद हवाएं जब प्रेम-संदेसा लाये,
विरह से व्याकुल चातक को जब स्वाति नक्षत्र मिल जाये,
प्रकृति हर्षित हो कर जब सौन्दर्य छटा बिखराए,
प्रेम-सुधा से विभोर विहग
जब गाये मधुर तराना,
तब प्रियतम तुम चुपके से
मेरे सपनों में आना

होली के रंगों से जब इन्द्रधनुष बन जाये,
सुरभित से उपवन में कोयल कुहू-कुहू गाये,
पर्वत शिखरों पर जब बादल काले छाए,
बरखा की बौछारों से जब तन मन भीगा जाये,
सूनी-सूनी वादियों में
जब मौसम आ जाये सुहाना,
तब प्रियतम तुम चुपके से
मेरे सपनों में आना.
--
अनिरुद्ध
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