Sunday, December 30, 2012

ऐनक


ख़्वाब बुनती थी दिन की निगाहें पहले,
गिरहें तुम्हारे दुपट्टे में बांध के,
दिन,
ना जाने कितने ही ख़्वाबों को छुपा जाता था,
और शरीर रात,
चुपके से इक-इक गिरह खोल के,
उन ख़्वाबों का ज़ायका लेती थी,
दिन तुम्हारे दुपट्टे की सिलवटों में,
रात की शरारत से भीगी,
मेरी तुम्हारी महक को पा कर,
मुंह फुला लेता था,
मगर फिर तुम्हारी नज़रों की सुर्ख़ी,
और चेहरे की हया देख,
मुस्कुराता
और गिरहें ख़्वाबों की फिर तुम्हारे दुपट्टे में बाँधने लगता,
इधर कुछ वक़्त से,
दिन की नज़रें कुछ कमज़ोर सी हो गयी हैं,
तुम्हारी नज़रों की इबारत,
अब इससे ठीक पढ़ी भी नहीं जाती,
अब तुम्हारे दुपट्टे में कोई गिरह ख़्वाब की,
मिलती नहीं,
बे-आसरा रात आजकल उदास रहती है,
और अपनी ही सर्द आहों में क़ैद होकर,
ज़र्रा ज़र्रा गुज़र जाती है,
ज़रा अपनी ऐनक तो देना स्वीटो,
दिन की आँखों पे चढ़ा दूंगा,
ताकि रात को,
फिर तुम्हारा ही कोई ख़्वाब मिले.
--
अनिरुद्ध
Creative Commons License
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मौसम


मेरे दिल के आँगन में,
बन के बरखा उतरा एक मौसम,
कुछ अपना कुछ बेगाना सा,
कुछ सपना कुछ अफसाना सा,
उसकी इक-इक बात में ढल के,
हर पल मुझ पर बरसा मौसम,

उससे मिलने से पहले तक,
हर मौसम अच्छा लगता था,
अब अच्छा लगता ना मुझको,
उसके पहले और बाद का मौसम,

वो देखे तो बदल छायें,
वो हँस दे तो बारिश हो,
उसके चेहरे की रंगत पढ़ कर,
अपना रंग बदलता मौसम,

शाम ढली फिर रात भी गुज़री,
वो इक मंज़र पे ठहर गया,
बस उसकी ही बातें करता,
मुझ जैसा इक पगला मौसम.
--
अनिरुद्ध

P.S. I wrote this poem for a friend who wanted to give it to a girl as a proposal.
Today both are happily married.
To different people.

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सैंडल


शोख़ है रंग,
जैसे मेरे दिल का लहू,
हवाओं सी रफ़्तार,
जैसे बादलों से है गुफ़्तगू,
ना रुकतीं हैं, ना झुकती हैं,
हर वक़्त तुमसे लिपटी ये,
क़दमों का बोसा करती हैं,
कितना रश्क़ है मुझे,
तुम्हारी इन सैंडलों से स्वीटो.
--
अनिरुद्ध
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ग़ज़ल


लफ्ज़ जब भी ख़ामोश होते हैं,
आप दिल के करीब होते हैं,

ज़िन्दगी बोझ लगती है इनके बिन,
रिश्ते क्यूँ इतने अज़ीज़ होते हैं,

न पूछो दर्द क्यूँ पाले मैंने,
किसी मर्ज़ की ये भी दवा होते हैं,

घर जलाने को गैर की नहीं दरकार,
लोग खुद अपने रक़ीब होते हैं,

नाम लिख कर मिटा देने से क्या होता है,
वजूद तो फिर भी वजूद होते हैं,

यूँ न दिखलाओ दुनिया को दीवानापन तशना,
मुहब्बत के कुछ अपने उसूल होते हैं.
--
अनिरुद्ध
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