Sunday, December 30, 2012

ऐनक


ख़्वाब बुनती थी दिन की निगाहें पहले,
गिरहें तुम्हारे दुपट्टे में बांध के,
दिन,
ना जाने कितने ही ख़्वाबों को छुपा जाता था,
और शरीर रात,
चुपके से इक-इक गिरह खोल के,
उन ख़्वाबों का ज़ायका लेती थी,
दिन तुम्हारे दुपट्टे की सिलवटों में,
रात की शरारत से भीगी,
मेरी तुम्हारी महक को पा कर,
मुंह फुला लेता था,
मगर फिर तुम्हारी नज़रों की सुर्ख़ी,
और चेहरे की हया देख,
मुस्कुराता
और गिरहें ख़्वाबों की फिर तुम्हारे दुपट्टे में बाँधने लगता,
इधर कुछ वक़्त से,
दिन की नज़रें कुछ कमज़ोर सी हो गयी हैं,
तुम्हारी नज़रों की इबारत,
अब इससे ठीक पढ़ी भी नहीं जाती,
अब तुम्हारे दुपट्टे में कोई गिरह ख़्वाब की,
मिलती नहीं,
बे-आसरा रात आजकल उदास रहती है,
और अपनी ही सर्द आहों में क़ैद होकर,
ज़र्रा ज़र्रा गुज़र जाती है,
ज़रा अपनी ऐनक तो देना स्वीटो,
दिन की आँखों पे चढ़ा दूंगा,
ताकि रात को,
फिर तुम्हारा ही कोई ख़्वाब मिले.
--
अनिरुद्ध
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मौसम


मेरे दिल के आँगन में,
बन के बरखा उतरा एक मौसम,
कुछ अपना कुछ बेगाना सा,
कुछ सपना कुछ अफसाना सा,
उसकी इक-इक बात में ढल के,
हर पल मुझ पर बरसा मौसम,

उससे मिलने से पहले तक,
हर मौसम अच्छा लगता था,
अब अच्छा लगता ना मुझको,
उसके पहले और बाद का मौसम,

वो देखे तो बदल छायें,
वो हँस दे तो बारिश हो,
उसके चेहरे की रंगत पढ़ कर,
अपना रंग बदलता मौसम,

शाम ढली फिर रात भी गुज़री,
वो इक मंज़र पे ठहर गया,
बस उसकी ही बातें करता,
मुझ जैसा इक पगला मौसम.
--
अनिरुद्ध

P.S. I wrote this poem for a friend who wanted to give it to a girl as a proposal.
Today both are happily married.
To different people.

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सैंडल


शोख़ है रंग,
जैसे मेरे दिल का लहू,
हवाओं सी रफ़्तार,
जैसे बादलों से है गुफ़्तगू,
ना रुकतीं हैं, ना झुकती हैं,
हर वक़्त तुमसे लिपटी ये,
क़दमों का बोसा करती हैं,
कितना रश्क़ है मुझे,
तुम्हारी इन सैंडलों से स्वीटो.
--
अनिरुद्ध
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ग़ज़ल


लफ्ज़ जब भी ख़ामोश होते हैं,
आप दिल के करीब होते हैं,

ज़िन्दगी बोझ लगती है इनके बिन,
रिश्ते क्यूँ इतने अज़ीज़ होते हैं,

न पूछो दर्द क्यूँ पाले मैंने,
किसी मर्ज़ की ये भी दवा होते हैं,

घर जलाने को गैर की नहीं दरकार,
लोग खुद अपने रक़ीब होते हैं,

नाम लिख कर मिटा देने से क्या होता है,
वजूद तो फिर भी वजूद होते हैं,

यूँ न दिखलाओ दुनिया को दीवानापन तशना,
मुहब्बत के कुछ अपने उसूल होते हैं.
--
अनिरुद्ध
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Friday, November 16, 2012

पेंडेंट


आग के छल्ले हो जैसे,
सुफेद बादलों में लिपटे से,
उमड़-घुमड़ के,
आसमां का हार से बनते,
सूरज की सुनहरी धुप के तागों में बंधे,
जब तुम्हारी सुराह गर्दन पे सजे,
तो दिल से यूँ आह निकली,
खूबसूरत निकला ये हीरों का पेंडेंट,
तुम्हे पहनकर स्वीटो.
--
अनिरुद्ध
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ज़िन्दगी एक दिन की


कुछ ख़ूबसूरत बातों के नक्श,
जब कागज़ पे उतरे,
तब तुम्हारे नाम की इक ग़ज़ल बनी,
मीठी हंसी के काफ़ियों ने,
हर शेर मुक़म्मल किया,
और-तुम्हारी नज़रों के लम्स ने,
अशआरों को नये माने दिये,
दिन-
जो तुम्हारे तस्सवुर से रौशन हुआ,
रात चढ़ते चढ़ते तुम्हारी तारीफ़ के क़सीदे पढने लगा,
इन ग़ज़लों और क़सीदों में स्वीटो,
मुझे तुम्हारे वजूद में पनाह मिली,
किस्मतों के चराग़ जले,
और-तुम्हारे नूर ने मुझे,
एक दिन में इक ज़िन्दगी अता की.
--
अनिरुद्ध
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चूड़ियाँ


घुमक्कड़ वो अब्र आसमाँ में,
सतरंगी धनुक की चादर ओढ़े,
अपनी ही धुन में मगन कहीं जा रहा था,
मैंने आवाज़ देकर रोका उसे,
और पूछा,
ये सतरंगी धनुक ओढ़े कहाँ फिरते हो,
उसने कहा मैं अब्र हूँ,
मेरा अपना कोई रंग नहीं,
मैंने गौर से देखा तो पाया,
ये रंग तो मेरी निगाहों से है,
मैं कुछ इसी उलझन में था,
की तुम्हारी चूड़ियों की खनक ने मुझे चौंका दिया,
अब्र ने हँस के अपनी राह पकड़ी,
और तब मैंने जाना,
तुम्हारी कलाईयों पे सजी सतरंगी चूड़ियों से स्वीटो,
मेरा सारा वजूद रंग हुआ है.
--

अनिरुद्ध
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जब हंसी आँखों में ग़ुम हुई


लोग तब आंसुओं को पी रहे थे,
जब हंसी,
आँखों में ग़ुम हो रही थी,
रोते, सिसकते, दौड़ते, हांफते लोग,
दम तोड़ती मासूमियत को बचाने की,
ईमानदार कोशिश कर रहे थे,
मैं भी तो वहीँ था,
ख़्वाब देखता हुआ,
जब हंसी वाकई आँखों में ग़ुम हो रही थी,
मैंने हाथ बढाया भी,
मगर मेरे हाथों की कपकपाहट देख कर,
हंसी की आँखों में आंसू आ गए,
और अपने ही रोने पे हैराँ हंसी,
आँखों में ग़ुम हो गयी,
हाँ-
उन आंसुओं का खारापन,
अब तलक चेहरे पे चिपका हुआ है,
मेरे अंदर की आग ने,
मेरी आँखों में जमी बर्फ़ को पिघलाया भी,
लेकिन हंसी के आसुओं का नमक,
मेरे चेहरे से नहीं उतरा,
जानता हूँ,
की हसीं का मातम ज़्यादा दिनों तक नहीं चलेगा,
कल फिर कुछ नया ग़ुम होगा,
कल फिर कुछ जुदा मरेगा,
और मैं,
उसके लिए अपने आँखों की बर्फ़ पिघलाऊंगा,
नए की ख़ातिर,
पुराने को भूल जाऊंगा,
हमेशा की तरह,
हमेशा के लिए.
--
अनिरुद्ध
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आख़िरी सांस


चाँद के पार,
सुरमई से आसमानों पे,
तुम्हारी पलकों तले,
शोख़ मुस्कुराहटों के सितारे,
झिलमिलाते से,
एक दूसरे में ग़ुम,
सुबह के कत्थई उजालों से अनजान,
अपने वजूद को जीते हैं,
धडकनों का संगीत रचते हैं,
मद्धम होती साँसों,
और बेखुद होती नज़रों के दरमियाँ,
खुद से परे,
एक दूसरे में सिमटे से,
मिलने और बिछड़ने के अहद में बंधते हैं,
तमन्ना ये की,
वक़्त थम जाये इस मंज़र पर,
और दिल की दुआओं को आराम मिले,
तेरी नज़र के उजालों में खोते हुए,
आख़िरी सांस लें.
--
अनिरुद्ध
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हसरत


मेरी हँसी की आँखों में झांककर मत देखो,
तमाम मुस्कुराहटों की परतों के नीचे दबा कोई ग़म,
कहीं रोने ना लगे,
मेरी धडकनों की आवाज़ को लय में ना बांधो,
साँसों के शोर में खोयी हुई कोई सदा,
सुनाई ना दे जाये,
मेरे कांपते वजूद को आपनी मासूमियत का सहारा ना दो,
बिखरने की जद्दोजेहेद में फंसा ये मन,
जीने की आरज़ू ना करने लगे,
अगर कुछ करना ही चाहते हो,
तो बस इतना कर दो,
की आँखों पर उम्मीद का परदा चढ़ाये,
मेरी हसरतों को,
सच दिखा दो,
और किस्मत की बेजान दीवारों में क़ैद,
मेरी चाहतों को,
आज़ादी दे दो.
--
अनिरुद्ध
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Wednesday, November 14, 2012

क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे


क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे,
अगर खुशियाँ लिखता हूँ,
तो ग़म,
आवारा स्कूली बच्चों की तरह,
हँसी के पर्दों के पीछे से झाँकने लगता है,
और अगर ग़म लिखता हूँ,
तो खुशियाँ,
गाँव के बनिए की तरह,
अपने एहसान का तकाज़ा करने लगती हैं,
सवाल फिर सवाल ही रह जाता है,
क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे,
अगर सच लिखता हूँ,
तो झूठ,
नुक्कड़ पे खड़े लड़कों की तरह,
तायने और फ़िक़रे कसने लगता है,
और अगर झूठ लिखता हूँ,
तो सच,
ज़िद्दी बच्चे की तरह,
आँखों में मोटे आंसू ला कर रोने लगता है,
सवाल फिर सवाल ही रह जाता है,
क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे,
सोचता हूँ की अपने दिल का हाल लिख दूँ,
थोड़ी खुशियाँ होंगी, थोड़ा सच होगा,
थोड़े ग़म होंगे, थोड़ा झूठ होगा,
थोड़ा मैं रहूँगा, बाकी तुम रहोगी,
फिर सोचता हूँ,
मुझसे बेहतर तो तुम मुझे जानती हो,
ग़म, ख़ुशी, सच, झूठ और मेरी धड़कने,
गवाही देते हैं,
और सवाल जवाब बन जाता है,
क्या लिखूँ और क्या सुनाऊँ तुम्हे.
--
अनिरुद्ध
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फिर कभी और सही


कहने को है ये, और बहुत कुछ,
मगर सोचता हूँ, फिर कभी और सही,
जब शफ़क़ पे डूबती हो साँसें,
और हसरतों की लौ बुझने लगे,
तब तेरे पहलु से उठ के,
तेरे कानों में ये कहूँ,
की तुम मेरी ज़िन्दगी,
सारी उमर मुझसे दूर क्यूँ रहीं,

कहने को है ये, और बहुत कुछ,
मगर सोचता हूँ, फिर कभी और सही,
जब धड़कनों का शोर हो मद्धम,
और ख़ामोशी को पढ़ती हों तेरी निगाहें,
तब तेरे आग़ोश से उठे के,
तेरे कानों में ये कहूँ,
की तुम मेरी हमनशीं,
सारी उमर मुझसे ख़फ़ा क्यूँ रहीं,

कहने को है ये, और बहुत कुछ,
मगर सोचता हूँ, फिर कभी और सही,
जब एक ख़्वाब की आँखों से आंसू बरसें,
और ख़ुशकिस्मत रात भीगती हुई पिघलती रहे,
तब तेरे ज़ानू से उठ के,
तेरे कानों में ये कहूँ,
की तुम मेरी बंदगी,
सारी उमर मुझसे जुदा क्यूँ रहीं,

कहने को है ये, और बहुत कुछ,
मगर सोचता हूँ, फिर कभी और सही,
हाँ कभी और सही.
--
अनिरुद्ध
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अधूरी सी नज़्म


अधूरी सी वो इक नज़्म,
आहिस्ता आहिस्ता सांस लेती है,
तुम्हारे लौट आने की राह देखा करती है,
पथराई सी आँखों में ख़्वाब सजाया करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
तिनके तिनके जोड़ के काफ़िये बनाया करती है,
तुम्हारी पलकों के सिरहाने बैठ के,
तुक मिलाने के अरमां बुना करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
टूटे दरवाज़े के पैबंद लगे पर्दों से,
बाहर झाँका करती है,
रास्तों पे तुम्हारे लौटते क़दमों के निशां ढूंढा करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
रात दिन बस दुआ में,
तुम्हारी मुस्कुराहटों की खुशबू से,
पूरा होने की मन्नतें माँगा करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
हर उठती खांसी के साथ मुझसे लड़ा करती है,
तुम्हारे रूठ के जाने का ताना दिया करती है,
अधूरी सी वो इक नज़्म,
न जाने क्यूँ,
तुमको पढ़ कर मुक़म्मल होना चाहती है,
हर लम्हा मुझसे यही पूछा करती है,
क्या तुम इक बार मेरे करीब आ कर,
मेरे कानों में कुछ गुनगुना कर,
या फिर,
मेरे दिल को अपनी निगाहों से महका कर,
इस अधूरी सी नज़्म
और-
अधूरी सी मेरी तमन्नाओं को,
मुक़म्मल करोगी.
--
अनिरुद्ध
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अमानत


समंदर किनारे की वो गीली रेत,
जो तुम्हारे क़दमों से लिपट के मेरे घर आई थी,
अब तलक मेरे कमरे में बिखरी पड़ी है,
इसी रेत पर,
अलसाई आँखों में तुम्हारी हंसी छुपाये वो रात,
अब दिन चढ़े भी सोती रहती है,
हाँ वही रात,
जिसने चौपाटी पर,
आसमान की थाली में सितारों की पानी-पूरी परोसी थी,
और वो चाँद,
जो खिड़की पे अटका हुआ,
तुम्हारी शोख़ शरारतों पर मुस्कुरा रहा था,
तुम्हारी अंगड़ाई पे होश खो कर,
रात के दामन में सिमटा हुआ,
छुपा रहता है,
तुम्हारे होंठों की छुअन से सुर्ख़ हुई मेरी कमीज़,
अब अलमीरा में बाकी मेरे कपड़ों को चिढ़ाती है,
इतनी सौगातों का रोज़ पहरा देता हूँ,
तुम आ कर अपनी अमानत संभाल लो स्वीटो,
आजकल रोज़ दफ़्तर को देर हो जाती है.
--
अनिरुद्ध
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Tuesday, November 13, 2012

तेरे बिना


तेरे बिना भी पहले सा जीता हूँ मैं,
बस ज़िन्दगी कुछ ठहरी सी चलती है अब,
सुबह दफ़्तर भी जाता हूँ,
और काम में मसरूफ़ भी रहता हूँ,
वक़्त ज़रा थम के निकलता है,
पर गुज़र ही जाता है,
शाम होते होते नम सा कुछ,
आँखों में पिघलने लगता है,
और सीने में इक ग़ुबार सा उठता है,
सर्द हवा का एक झोंका,
कंपकंपाते लबों को ख़ुश्क कर जाता है,
तेरे नाम की सदा गले में रुंध जाती है,
फिर भी तेरा नाम होंठों पे नहीं लाता हूँ मैं,
तेरे बिना भी पहले सा जीता हूँ मैं,
कान दरवाज़े पे रख देता हूँ,
और आती-जाती हर आहट में,
तुझको सुनने की कोशिश करता हूँ,
बिस्तर पे बिछी चादर की,
बेतरतीब सलवटों से उठती तेरी ख़ुश्बू को,
हाथों में समेट लेता हूँ,
अलमीरा के ऊपर रखे बक्से में बंद तेरे ख़त,
फिर से पढ़ता हूँ ,
तेरी आवाज़ की धुंधली सी तस्वीर बन जाती है,
तेरे ख़याल का हुजूम दिल में रुलने लगता है,
फिर भी तुझे लौटने को आवाज़ नहीं देता हूँ मैं,
तेरे बिना भी पहले सा जीता हूँ मैं,
बस ज़िन्दगी कुछ ठहरी सी चलती है अब,
हाँ  ज़िन्दगी कुछ ठहरी सी चलती है अब

--
अनिरुद्ध
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Thursday, November 8, 2012

वजूद


तुम्हारी मासूमियत के उजालों में,
मेरा वजूद साफ़ नज़र आता है,
हर जगह पैबंद लगे हैं झूठ के,
गुनाहों की गिरहें,
ख़ुद अपनी तहें उधेड़ती हैं,
मगर हर उधडती तह के साथ,
गुनाह बढ़ते से मालूम होते हैं,
अपने वजूद की गिरहों को छुपाने की खातिर,
न जाने कब तलक मैं,
अंधेरों का हाथ थामे चलता रहूँगा,
राह का पता नहीं,
मंजिल की उम्मीद नहीं,
फिर भी चला जाता हूँ,
की ज़िंदा रहने का एहसास बना रहे,
ख़ुद से लड़ता,
ख़ुद के साथ,
ख़ुद ही की तलाश में,
तुमसे दूर,
पर फिर तुम्हारी ही तरफ,
शायद कहीं,
शायद कभी,
मेरी मुझसे मुलाक़ात हो,
और मैं,
ख़ुद को अपना वजूद सौंपकर,
लौट सकूँ तुम्हारे पास,
तुम्हारी मासूमियत के उजालों में,
बिना वजूद,
की फिर मुझमें और तुममें कोई फ़र्क न रहे,
की फिर मुझे तुमसे कभी जुदा न होना पड़े मेरे अलग वजूद की वजह से.
--
अनिरुद्ध

(Inspired by movie Maachis)
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इंतजार


न्यूज़ पेपर से काटी हुई कतरनों सी धड़कने हैं,
आड़ी तिरछी सी जुड़ करके साँसों की ख़बरें सुनाती हैं,
चंद बीते लम्हों के साये हैं,
जो आज भी शाम ढले,
दालान में मेरे साथ बैठे रहते हैं,
और वो आँगन के बीच में खड़ा नीम का पेड़ भी है,
जो हमेशा अकड़ा हुआ रहता था,
अब ज़रा सी कमर झुक गयी है बस,
हाँ वो कलकत्ता प्रिंट के परदे भी हैं,
जो तुमने बड़े जतन से हमारे कमरे में लगाये थे,
रंग ज़रूर उड़ गया है उनका मगर मेरी ऐनक से अब भी वो आसमानी नज़र आते हैं,
जिस पे चढ़ के तुम सारे घर के जाले छुड़ाती थीं,
लकड़ी का वो स्टूल भी अब तक है,
तीन ही टांगे बची हैं अब उसकी,
ये ही कुछ असबाब हैं मेरे पास बस और क्या,
इन्हीं असबाबों में मैं भी तुम्हारी ही इक निशानी सा बना हुआ,
सुबह से शाम ज़िन्दगी के चक्कर गिनता हूँ,
उस राह को ताका करता हूँ,
जिसपे से तुम फिर आने का ऐहद करके गयीं थीं.
--
अनिरुद्ध
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Tuesday, November 6, 2012

ये दिल


खिंचा खिंचा सा रहता है आजकल ये दिल
जुदा जुदा सा रहता है आजकल ये दिल

न ख़्वाहिशें न आरज़ू न जुस्तजू कोई
डरा डरा सा रहता है आजकल ये दिल

सीने में सुलगते हैं अरमान रात भर
धुआं धुआं सा रहता है आजकल ये दिल

ता उम्र आँधियों से है जूझा चराग़-ऐ-जीस्त
थका थका सा रहता है आजकल ये दिल

शफ़क़ पे चढ़ के गिरता है शोला रोज़ शाम
बुझा बुझा सा रहता है आजकल ये दिल
 --
अनिरुद्ध
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कुछ यूँ ही


अफ़सोस

बहुत बनाई हमने बात, बात ये बनी नहीं
चाँद खींचा हमने सारी रात, रात ये थमी नहीं


तुम

तुम जो आते हो तो ख़ामोशियाँ गुनगुना उठती हैं,
वरना मुझसे तो मेरी आवाजें भी बोलती नहीं.

तू

मेरी रूह में बस गयी है तू, तुझसे जुदा खुद को मैं पाता नहीं,
तेरे दर पे सजदा करता हूँ, तेरे सिवा अब कहीं जाता नहीं.


मुसाफ़िर

अपनी कश्ती का मैं ही हूँ माझी भी मुसाफ़िर भी,
तन्हाई ही सफ़र है मेरा तन्हाई ही मंज़िल भी.



--
अनिरुद्ध
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ओ अदृश्य तुम आह्वान करो


सृष्टि की बलिवेदी सम्मुख है,
समय की ज्वाला उन्मुक्त है,
मैं अग्निदग्ध होने को तैयार हूँ,
ओ अदृश्य तुम आह्वान करो

कालचक्र गतिमान है,
जीवनधारा भी बलवान है,
मैं निमग्न होने को तैयार हूँ,
ओ अदृश्य तुम आह्वान करो

मन व्याकुल भयाक्रांत है,
संवेदना शून्य क्लांत है,
मैं स्तिथ्प्रज्ञ होने को तैयार हूँ,
ओ अदृश्य तुम आह्वान करो

जड़-चेतन सम-विषम,
धारा-व्योम दिव्य-तम,
मैं अपार्थिव होने को तैयार हूँ,
ओ अदृश्य तुम आह्वान करो

स्पंदन रथ मद्धम है,
कर्म विमुख निज मन है,
मैं परंतप होने को तैयार हूँ,
ओ अदृश्य तुम आह्वान करो

क्षितिज पार ओज आभास,
मध्य तिमिर है मृत्यु ग्रास,
मैं ग्रसित होने को तैयार हूँ,
ओ अदृश्य तुम आह्वान तो करो.
--
अनिरुद्ध
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कौन


कौन हूँ मैं क्या हूँ नहीं जानता हूँ मैं
तेरी नज़र से ख़ुद को अब पहचानता हूँ मैं

हाफ़िज़ हूँ मैं ख़ुद अपने ही इखलाक का यारों
ग़ैरों पे कभी ऊँगली नहीं तानता हूँ मैं

है बुतकशी कहीं तो हैं सजदे कहीं 'तशना'
तेरे दीद को ही दीद-ए-ख़ुदा मानता हूँ मैं
--
अनिरुद्ध
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पता है तुम्हें


पता है तुम्हें,
नींद से बोझल हो कर,
जब तुम्हारी आँखें खुलती बंद होती हैं,
तो उनमे मुझे,
तुम्हारे ख़्वाब दिखाई देते हैं,
सतरंगी पंख लगाये वो ख़्वाब,
उड़ के मेरे क़रीब आते हैं,
मुझसे इसरार करते हैं,
कि मैं उन्हें मेहताब के कन्धों पे बिठा के,
उम्मीद के उस देस ले चलूँ,
जहाँ वो सारे ख़्वाब तामीर हो सकें,
पता है तुम्हें,
बालकनी में खड़े हो के,
जब तुम शाम के मटमैले आसमान में,
अपना इक सितारा ढूंढ़ती हो,
तो तुम्हारे दिल में बसी हसरतें,
मुझे सुनाई देती हैं,
आँखों में मासूमियत लिए वो हसरतें,
चल के मेरे क़रीब आती हैं,
मुझसे ज़िद करती हैं,
कि मैं उन्हें वक़्त के खिलोने में चाबी भर के,
ख़यालों के उस देस ले चलूँ,
जहाँ वो सारी हसरतें पूरी हो सकें,
इसीलिए मैंने रात दिन के इस सफ़र से,
तन्हाई के चंद लम्हें चुरायें हैं,
ख्वाबों के चंद क़तरे बटोरें हैं,
हसरतों के चंद ज़र्रे समेटे हैं
और इक तसव्वुर की पनाह ढूंढ़ी है,
अब जब शफ़क़ पे नया चाँद निकले,
तो तुम अपने सारे ख़्वाब और सारी हसरतें लिए,
मेरे दिल में उतर आना,
फिर कोई ख़्वाब तुम्हारा या हसरत ही कोई,
ना-मुक़म्मल बाक़ी नहीं रहेगी.
--
अनिरुद्ध
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तन्हाई


तन्हा रातों के उदास साये,
शाम के धुंधलके में चुपके से आ कर अपने पाँव पसार देते हैं,
एक और दिन के बीत जाने का एलान करते हैं,
मटमैले ख्वाबों की अधूरी सी हसरत,
आँखों पर नींद का बोझ डालती है,
मगर कमबख्त पलकें हैं की बंद नहीं होती,
तेरे आने के एहेद पर,
रस्ते पे बिछी रहती हैं,
दुआ अब यही की,
बेख़याली में ही सही,
मगर इस रस्ते से तू गुज़रे,
तेरे क़दमों का बोसा हो,
और आँखें बंद हो जायें.

--
अनिरुद्ध
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अधूरी उड़ान


चार लम्हें उधार के जोड़े,
अजनबी चेहरों से ख़ामोशी बटोरी,
वक़्त की धूल हटा कुछ ज़ज्बात  समेटे,
और यादों की पोटली काँधे पे उठा ली,
चलती राहों का हाथ थाम,
तेरा लम्स सांसों में बसाये,
फिर इक सफ़र पे निकल पड़ा ख़ानाबदोश तेरा,

अधूरी उड़ानों के परिंदों का आशियाँ कहाँ.

--
अनिरुद्ध
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Sunday, November 4, 2012

आरज़ू


चलो रात चाँद पे चढ़ जाएँ,
और ख़्वाबों की ज़मीं पे कूदें,
कुछ  वादों की धूल उठा के,
एक दूसरे पे फेंकें,
रात की काली चादर को,
जुगनुओं की रौशनी में भिगो दें,
लहरें बना के,
दरिया को जगाएं,
चलो रात चाँद पे चढ़ जाएँ,
और दरख्तों की शाखों पे अपना नाम कुरेदें,
बादलों के टुकड़े काट के,
तेरा आँचल बना दें,
मुस्कुराहटें होंठों पे सजा लें,
तेरी शोख़ियों की सरगम को,
उम्र भर गुनगुनाएँ,
चलो ना, इक रात चाँद पे चढ़ जाएँ.

--
अनिरुद्ध
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Saturday, October 27, 2012

रात रुक जाओ


काम कुछ ख़ास तो नहीं,
मगर यूँ उठ के ना जाओ,
रात की ही तो बात है,
और थोड़ी सी ही जान बाकी है,
रुक जाओ,
आसमां का छोर पकड़ लो हाथों में,
और जब बेख़बर हो चाँद,
तो हौले से झटक दो आसमां,
मुट्ठी भर सितारे तुम्हारे दामन में टूट गिरेंगे
टूटे सितारों से दामन सजाओ,
रात की ही तो बात है,
और थोड़ी सी ही जान बाकी है,
रुक जाओ,
या फिर समेट लो बाँहों में ग़म मेरे,
और जब बेदिल सी लगे ख़ुशी,
तो लोरी सुना के बहला लो उनको,
कुछ क़तरा ग़म तुम्हारी आँखों में सो पड़ेंगे,
मेरे ग़म अपनी आँखों में सुलाओ,
रात की ही तो बात है,
और थोड़ी सी ही जान बाकी है,
रुक जाओ,
ना हो तो कुछ गर्द ही हटा दो लफ़्ज़ों से,
और जब शोर सी लगने लगे ये धड़कने,
तो डूबती नब्ज़ में बाँध दो लफ़्ज़ों को,
चंद नज्में सूनी सी तुम्हारे कानों में हंस पड़ेंगी,
इन नज़्मों की हंसी को गुनगुनाओ,
रात की ही तो बात है,
और थोड़ी सी ही जान बाकी है,
रुक जाओ.
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Sunday, October 21, 2012

जानां


रात चाँद फिर आँखों में उतर आया,
फिर बेसुध  आँखों में नींदें जलीं,
जले बुझे से कुछ ख़्वाबों ने उस राख़ से पुकारा मुझे,
करवट बदल के बिस्तर के उस ख़ाली हिस्से को देखा,
जहाँ अब भी तुम्हारे बदन के निशां बाक़ी हैं,
एक फ़ीकी सी हंसी आँखों की कतारों को नम कर गयी,
इक ज़रा सी रात तुम बिन कटती नहीं,
अब तो लौट आओ जानां,
की अपने ही घर में बंजारों सा फिरता हूँ मैं,

--
अनिरुद्ध
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Saturday, October 13, 2012

हम भी फ़साना कह देंगे


कभी हम भी फ़साना कह देंगे गुज़रा वो ज़माना कह देंगे
रुन्धते से गले नम सी आँखें सब हाल पुराना कह देंगे

जो ज़ख्म पुरानी यादों के फिर से ताज़ा हो जाएँ तो
आँखों से बरसते आंसू को खुशियों का बहाना कह देंगे

फिर घड़ी दो घड़ी ग़म होगा फिर घड़ी दो घड़ी खुशियाँ भी
और रुखसत लेते लम्हों में वादा वो पुराना कह देंगे

झूठी कसमें झूठी रस्में झूठी तारीफों के हमदम
सच का आईना दिखलाया तो हमें लोग बेगाना कह देंगे

यादें साँसें नगमें धड़कन वादे काँटे खंज़र और दिल
तेरी सौगातें बतला दें तो 'तश्ना' को दीवाना कह देंगे

--
अनिरुद्ध
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Saturday, October 6, 2012

ज़िन्दगी फिर चाँद माथे पर चढ़ा कर आई है

भूले हुए ख़्वाबों को आँखों में बसा कर आई है,
ज़िन्दगी फिर चाँद माथे पर चढ़ा कर आई है

शाहों ने बिठाये पहरे चाँद सूरज तारों पर,
शम्मा ये अंधेरों को फिर ठेंगा दिखा कर आई है

इस सुबह में रात की कालिख मिटाई जाएगी,
ये सुबह फिर रौशनी सर पे सजा कर आई है

तुम बढ़ा दो दूरियां क़दमों से मंजिल की मेरी,
हौसलों को चाहतें धड़कन बना कर आई है

लाख चाहे अब बना ले मौत का सामां कोई,
जीस्त आक़ा-ए-मौत से नज़रें मिला कर आई है
--
अनिरुद्ध
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Friday, October 5, 2012

लफ्ज़ नहीं मिलते हैं मुझको


आड़े तिरछे सन्नाटों के सायों से
हाथ छुड़ा कर
इक तनहा सी ख़ामोशी तेरी
आवाजों की महफ़िल में
चुपके चुपके चली आई है
काग़ज़ों पे फिर क़लम घुमा कर
अनजाने कुछ हर्फ़ जमा कर
मैंने सोचा अक्स बना दूँ
तेरी इस ख़ामोशी का
पर लफ्ज़ नहीं मिलते हैं मुझको
--
अनिरुद्ध
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साथ-साथ

ना मालूम ये कब हुआ कैसे हुआ मगर घर ये धीरे-धीरे
मक़ान में तब्दील हो गया
और हम तुम
जिनसे आबाद था ये घर
मक़ान वाले हो गए
बालकनी पर खड़े हो कर
शाम के डूबते सूरज के साथ
चाय की चुस्कियों के बीच
पूरे दिन का हाल अब नहीं सुनाते तुम
वो वक़्त अब लैपटॉप पे हिसाब मिलाने में निकल जाता है
मरीन ड्राइव पे हाथ थामे
ऊँची ऊँची इमारतों के सायों में जब हम घूमा करते थे
तब वक़्त बहुत होता था जेबों में
हफ़्ता-दर-हफ़्ता तुमसे मिलती हूँ अब
हफ़्ता-दर-हफ़्ता कोई अजनबी आ कर रहने लगता है तुम्हारी जगह
और वो नज़्मे
जो बहती थीं कभी आँखों से तुम्हारी
अब ऐनक के पीछे से भी झांकती नहीं
ख़ुद को खो कर तुमको पाया था जब
मुक़म्मल महसूस किया था मैंने
तुमको खो कर अब जो हासिल होता है
क़तरा-क़तरा वजूद मिटाता है वो
सुनो
अबकी बार सालगिरह पर
तोहफे में
अपने साथ हसरतें मेरी और मेरा घर ले आना
--
अनिरुद्ध
(Inspired by movie साथ-साथ)
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